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________________ णमोकार च वनदेवी ने प्रगट होकर ग्रनन्तमती के व्रत की रक्षा की। उस पापी दुरात्मा भीलपति को उसके दुष्कृत का खूब फल दिया और कहा कि अरे नीच ! तू नहीं जानता कि यह कौन है ? याद रख यह एक संसार पूज्य महादेवी है। जो इसे तूने सताया तो देख-समझ तेरे जीवन का कुल नहीं। यह कहकर वनदेवी अपने स्थान पर चली गई । उसके कहने का भीलपति के हृदय पर बहुत प्रभाव हुआ और पड़ना भी चाहिए था । प्रातःकाल होते ही वनदेवी के भय से अनन्तमती को पुष्पक नामक सेठ के अधीन कर दिया और उससे कहा कि आप कृपा करके अनन्तमती को इसके घर पहुंचा दीजियेगा । पुष्पक सेठ ने उस समय तो अनंतमती को उसके घर पहुंचा देने की प्रतिज्ञा करके भीलराज से ले लिया, लेकिन यह किसको मालूम था कि इसका हृदय भीतर से पापपूर्ण होगा। अनंनमती को पाकर पुष्पक सेठ श्रपने मन में विचार करने लगा कि मेरे हाथ बिना प्रयास किये हुये श्रनाथारा ही यह स्वर्ग सुन्दरी लग गई यदि यह मेरी बात को प्रसन्नता से मान ले तब तो अच्छा है, नहीं तो यह मेरे पंजे से छूटकर कहाँ जा सकती है ? यह विचार कर उस दुष्टात्मा कपटी ने अनंतमती से कहा कि हे स्वर्ग सुन्दरी ! तुमको प्राज श्रपना बड़ा भाग्योदय समझना चाहिए जो एक नरपिशाच के हाथ से छूटकर पुण्य पुरुष के प्रधोन हुई हो। कहां तो यह तुम्हारी अनुपम स्वर्गीय सुन्दरता और कहाँ वह भोलाधिपति भीमराक्षस कि जिसके महाभयानक कुरुप को देखते ही हृदय कपि उठता है । मैं तो आज अपने को राजा, महाराजा, तथा चक्रवर्त्यादि देवों से भी अधिक बढ़कर भाग्यशाली समझता हूं जो मुझे प्रमूल्य स्त्रीरत्न बड़ी सुलभता के साथ प्राप्त हुआ। भला बिना महाभाग्य के कहीं ऐसा रत्न मिल सकता है ? कभी नहीं । सुन्दरी ! देखती हो हमारे पास जो अक्षय धन और अनन्त वैभव है वह राव तुम पर न्यौछावर करने को तैयार हूँ और तुम्हारे चरणों का कीतदास बनता हूँ। मेरी विनयपूर्वक की हुई प्रार्थना को स्वीकार करके मुझे श्राशा है कि तुम प्रसन्न होकर वचन दोगी और अपने हृदय में मुझे जगह दोगी। इसी प्रकार अपने स्वर्गीय समागम से मेरे जीवन तथा धन वैभव को सफल कर मुझे सुखी करोगी। अनंतमती ने तो यह समझा था कि देव ने मेरी रक्षा करने के लिये निर्दयी भीलराज के पंजे से छुड़ाकर इसके श्राधीन किया है और अब मैं इस सेठ की कृपा से सुखपूर्वक अपने पिताजी के पास पहुँच जाऊँगी। पर वह बेचारी पापियों के हृदय की बात क्या जाने ? उसे जो भी मिलता था उसे वह भला ही समझती थी। यह स्वाभाविक बात है जो मनुष्य जैसा होता है वह दूसरे को भी वैसा ही समझता है। उसे यह नहीं मालूम कि छुटकारा पाने की जगह एक विपत्ति से निकलकर दूसरी विपत्ति के मुख में फँसना पड़ा है। वह बेचारी भोलीभाली अनंतमती उस दुरात्मा सेठ की पाप पूर्ण बातें सुनकर बड़े कोमल शब्दों में कहने लगी कि महाशय जी, श्रापको देखकर तो मुझे विश्वास हुआ था कि अब मेरे लिये किसी प्रकार का भय नहीं रहा। मैं निर्विघ्न अपने घर पहुँचा दी जाऊँगी, क्योंकि मेरी रक्षा करने के लिये एक दूसरे धर्म के पिता माकर उपस्थित हो चुके हैं, परन्तु मुझको अत्यन्त दुःख के साथ कहना पड़ता है कि भाप जैसे उत्तम पुरुषों के मुख से क्या ऐसे निद्य वाक्य प्रकट हों ? जिसे मैंने रस्सी समझकर हाथ में लिया था, मैं नहीं समझती थी कि वह ऐसा विकराल भयंकर सर्प होगा। क्या यह बाहरी, चमक-दमक और सोधापन केवल संसार को ठगने के लिए और दिखाऊ धर्मात्मापने का वेष धारण कर लोगों को धोखा देकर अपने मायाजाल में फंसाने के लिए है ? काक के समान ढीठ स्वभाव और कपटी होकर क्या यह वेब हंसों में गणना कराने के लिए है ? यदि ऐसा है तो तुम्हें तुम्हारे कुल को, तुम्हारे धन-वैभव और जीवन को धिक्कार है। जो मनुष्य ऐसा मायाचार करता है वह मनुष्य नहीं अपितु पशु, पिशाच और राक्षस है। वह पापी मुख देखने योग्य नहीं है । उसे जितना भी धिक्कारा जाय थोड़ा ही है । मैं नहीं जानती थी कि आप भी १३५
SR No.090292
Book TitleNamokar Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages427
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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