SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 287
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २६४ णमोकार प्रथ । __उसने बालक लाकर अपने पति के कर-कमलों में दे दिया। इन्द्र उन्हें ऐरावत हाथी पर बैठाकर बड़े समारोह के साथ सुमेरु पर्वत की ओर चला। ईशान इन्द्र ने छत्र धरे, सनत्कुमार, महेन्द्र, चेंबर हुलाने लगे और शेष इन्द्र सथा देव जय-जयकार शब्द करने लगे । किन्नर, गन्धर्व, तुम्बर, नारद आदि मनोहर-मनोहर गान करने लगे, अतः सौधर्म इन्द्र बड़े भारी महोत्सव के साथ सुमेरु पर्वत पर गया । वहाँ से पांडुक वन जाकर तत्र स्थित पांडुक शिला पर भगवान को पूर्व दिशा मुख विराजमान कर अभिषेक करने को उद्यत हा तब सब देवों ने रत्नजडित सवर्णमय एक हजार पाठ कलशों को लेकर पर्वत पर्यन्त कलशों की ऐसी सुन्दर श्रेणी बांध दी जो मन को मुग्ध किए देती थी। पश्चात् इन्द्र अपनी इन्द्राणी सहित भगवान का कलशाभिषेक करने लगा। इस समय सुमेरु पर्वत क्षीरसमुद्र के स्फटिक से भी धवल और निर्मल जल के अभिषेक से ऐसा मालूम होने लगा मानों चांद का बना हुआ हो जब भगवान का क्षीराभिषेक हो चुका तब दूसरे जल से अभिषेक कर इन्द्रानी ने जिनराज का शीरछा और उनके शरीर में सुगन्धि चन्दन आदि का विलेपन कर अनेक प्रकार सुगन्धित पुष्पों से उनकी पूजा की। । तत्पश्चात् स्वर्गीय दिव्य वस्त्रों और मुकुट, कुइल, हार प्रादि सोलहों आभूषणों से भूषित कर और उनके अंगूठे में अमृत रखकर इन्द्र भगवान की स्तुति करने लगा –'हे नाथ ! हे जिनाधीश ! यह जगत महान् अज्ञान रूप अंधकार से भरा है। उसमें भ्रमण करते हुए भन्य जीवों के मोह तिमिर हरने को श्राप सूर्य के समान प्रफुल्लित हो जायेंगे । इस संसार रूप में प्रकट हुए जीवों को सन्मार्ग बताने के लिए आप केवलज्ञान मय दीपक रूप में प्रगट हुए हो । हे जगन्नाथ ! आप तीन भुवन के स्वामी हैं । सब प्राणियों के नमस्कार के योग्य हैं। इस संसार में प्रापसे अधिक और कोई पूज्य नहीं हैं। आप प्रत्यक्ष हस्तरेखावत् लोकालोक के जानने वाले हैं स्वयं हैं, विज्ञाननिधान है, अजर है. अमर हैं और कर्मों के जीतने वाले हैं । व्यापको मैं भक्तिपूर्वक नमस्कार करता हूं, नाथ ! पाप भक्तजनों के रक्षक हैं, दरिद्रता के नाश करने वाले हैं, दुःख दरिद्रता के मिटाने वाले हैं। पाप ही काम धेन (मनोवांछित फल के देने वाले हैं । आप काम, क्रोध, मोह, लोभ, राग, द्वेप आदि कषायों से रहित वीतराग हैं । कर्म रूप बन के भस्म करने को पति है। इच्छित पदार्थों के देने को चितामणि हैं। काम रूप सपं के नाश करने को गरुड़ हैं। पंचेन्द्रियों के विषय रूपी पिशाचिनी के मारने को कटार हैं। प्राय अपने प्राश्रयी जीवों के भय, तृषा, रोम, परति प्रादि दुःखों को नाशकर शम अर्थात् मुख के करने वाले हैं अर्थात् आप शंकर हैं। हे धीर! पाप मोक्षमार्ग की विधि के विधानकर्ता हैं.प्रतएव प्राप ब्रह्मा हैं। हे देव ! मैं आपके गुणों का कहाँ तक यशोगान करू ? जब देवों के गुरु (वहस्पति) भी आपके गुणों का पार नहीं पा सकते तो मेरी तुच्छ बुद्धि कहाँ पार पा सकती है ?' इस प्रकार इन्द्र, भगवान की बहुत देर तक सभक्ति स्तुति करके बारम्बार नमस्कार करता हुआ तत्पश्चात् ऐरावत हाथी पर प्रारढ़ करके अयोध्यापुरी में वापिस ले पाया और अपनी प्रिया के द्वारा मरुदेवी के पास उसी अवस्था में भगवान को पहुंचा दिया । जब मरुदेवी की निद्रा खुली तो पुत्र को दिव्य अलंकारों से भूषित देखकर बड़ी आश्चर्यान्वित हुई। तत्पश्चात् इन्द्र, भगवान के माता-पिता का पूजनकर, अपने स्थान पर चला गया। . ।
SR No.090292
Book TitleNamokar Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages427
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy