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________________ णमोकार ग्रंथ पद का उच्चारण करते ही रत्नत्रय के धारक, छत्तीस मूलगुणयुक्त समभाव के साधक प्राचार्यों का स्मरण हो जाता है । और णमो उवज्झायाणं' पद से पच्चीस मूलगुणों के साधक, अंग पूर्वादि के पाठी उपाध्यात्रों के स्वरूप पर दृष्टि जातो है । णमो लोए सवसाहूणं-के उच्चारण करते ही पढ़ाई द्वीप में विराजमान अट्ठाईस मूलगुणों के धारक, सुस्त्र-दुख-जीवन, मरणादि में समभाव के धारक, आत्मसाधनमें निरत साधुओं का स्वरूप सामने प्रा जाता है। इस तरह णमोकार मन्त्र के उच्चारण, आराधना स्मरण करने से पंचपरमेष्ठियों के स्वरूप का सहज ही बोध हो जाता है । यद्यपि इस मन्त्र में किसी भी कामना की अभिव्यक्ति नहीं की गई है फिर भी प्राधिक इसे सब सिद्धियों का प्रदाता बतलाते हैं। इसमें सन्देह नहीं कि जिन्होंने इस मन्त्र की मिनावना राधा एवं मिसल भावपूर्ण किया है उनकी समस्त प्रापदाओं का विनाश स्वयमेव हो गया है, और उन्होंने सद्गति प्राप्त की है। जैन शासन में इस मन्त्र को अनादि एवं अपराजित बतलाया है। पंचपरमेष्ठियों के स्वरूप का निर्देशक पूरा नमस्कार मंत्र इस प्रकार है-- नमस्कार मंत्र पंचपरमेष्ठियों का वाचक है नमो प्ररिहताणं, णमो सिद्धाणं, णमो पाइरियाणं । णमो उवज्झापाणं, णमो लोए सव साहूणं ।। अरिहन्तों को नमस्कार हो, सिद्धों को नमस्कार हो, आचार्यों को नमस्कार हो, उपाध्यायों को नमस्कार हो और लोक में सर्व-साधुनों को नमस्कार हो । इस महामन्त्र में पंचपरमेष्ठियों को नमस्कार किया गया है। णमो अरिहंताणं' इस पद में अरिहंतों को नमस्कार किया गया है । परि शत्रुओं के नाश करने से परहंत संज्ञा प्राप्त होती है, नरक, तिरयंच, कुमानुष और प्रेत इन पर्यायों में निवास करने से होने बाले समस्त दु:खों की प्राप्ति का निमित कारण होने से मोह को अरि-शत्रु कहा गया है। शंका-केवल मोह को ही परि मान लेने पर शेष कर्मों का व्यापार कार्य निष्फल ही जाएगा? समाधान-यह शंका ठीक नहीं है, क्योंकि अवशिष्ट सभी कर्म मोह के अधीन हैं। मोह के अभाव में पवशिष्ट कर्म अपना कार्य उत्पन्न करने में असमर्थ हैं । अतः मोह की ही प्रधानता है। शंका-मोह के नष्ट हो जाने पर भी कितने ही काल तक शेष कर्मों की सत्ता रहती है, इसलिये उनको मोह के प्राधीन मानना उचित नहीं है। समाधान-ऐसा नहीं समझना चाहिए, क्योंकि मोहरूप शत्रु के नष्ट हो जाने पर जन्म-मरण परम्परा रूप संसार के उत्पादन की शक्ति शेष कमों में नहीं रहने से उन कर्मों का सत्व असत्व के समान हो जाता है। तपा केवलज्ञानादि समस्त प्रात्मगुणों के माविर्भाव के रोकने में समर्थ कारण होने से भी मोह को प्रधान शत्रु कहा जाता है । अत: उसके नाश करने से ही परिहत संशा प्राप्त होती है। अपवा रज-प्रावरण कर्मों के नाश करने में परिहत' यह संज्ञा प्राप्त होती है। ज्ञानावरण और दर्शनावरण कर्मधूलि की तरह बाह्य और अन्तरंग समस्त त्रिकाल के विषय भूत अनन्त अर्थ पर्याय और व्यंजन स्वरूप वस्तुमों को विषय करने वाले बोध और अनुभव के प्रतिबन्धक होने से रज कहलाते है। मोह को भी रज कहा जाता है, क्योंकि जिस प्रकार जिनका मुख भस्म से व्याप्त होता है, उनमें कार्य
SR No.090292
Book TitleNamokar Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages427
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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