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________________ पौफार ग्रंथ जिस कर्म के उदय से प्रात्मा के प्रदेश मरण के पीछे और नवीन शरीर धारण करने के पहले मार्ग में पूर्व शरीराकार रहें वह विग्रहगति नामकर्म है. वह चार प्रकार का है (१) नरकगति प्रायोग्यानुपूर्व्य नामकर्म जिस समय जीव मनुप्य या नियंच शरीर को त्याग कर नरक गति जाने को सम्मुख होता है उस समय मार्ग में जिसके उदय से प्रात्मा के प्रदेश पूर्व शरीराकार रहे उसे नरकमति प्रायोग्यानुपूर्य कहते हैं। (२) देव गति प्रायोग्यानुपूयं नामकर्म-जिस समय जीव मनुष्य या तिथंच शरीर को त्याग कर देवगति में जाने को सन्मुख होता है उस समय मार्ग में जिनके उदय से आत्मा के प्रदेश पूर्व शरीराकार रहैं उसे देव गति प्रायोग्यानुपूर्य कहते हैं । (३) मनुष्य गत्यानुपूर्वी नामकर्म-जब देव शरीर वा नारक शरीर को छोड़ वा मनुष्य शरीर अथवा तियंच शरीर को छोड़कर मनुष्य गति को जाता है तब मार्ग में मनुष्य गत्यानुपूर्वी प्रकृति का उदय होता है। (४) नियंच गत्यानुपूर्वी-जब तिर्यंचगति को जाता है तब तिर्यंच मत्यानुपूर्वी प्रकृति का उदय होता है। इस कर्म का उदय जघन्य काल एक समय, मध्यम दो समय और उत्कृष्ट तीन समय मात्र है। जिस कर्म के उदय से शरीर लोहे के गोले की तरह भारी और पाक, तूल' की तरह हल्का न हो उसे अगुरुलघु नामकर्म कहते हैं। जिसके उदय से अपने शरीर के (बड़े सींग, बड़ा पेट, कस्तूरी का बैना आदि) अवयव अपना ही घात करने वाले हों उसे उपघात नामकर्म कहते हैं । जिसके उदय से तीक्ष्ण नख व सींग, बिच्छू वा तय के डंक मादि अंगोपांग, घर के बात करने वाले होते हों उसे परघात नाम कर्म कहते हैं । जिसके उदय से पातापमय शरीर होता है उसे आताप नामकर्म कहते हैं जैसे सूर्य के विमान में पृथ्वीकारिक जीव मणि स्वरूप होते हैं । उद्योत प्रकृति के उदय से आताप रहित प्रकाश रूप शरीर होता है, जैसे चन्द्रमा के विमान में पृथ्वीकायिक जीव मणिस्वरूप होते हैं। जिस कर्म के उदय से शरीर में श्वासोच्छवास हो उसको उच्छयास नामकर्म कहते हैं । जिस कर्म के उदय से आकाश में गति हो उसे विहायोगति नामकर्म कहते हैं । यह दो प्रकार जो हाथी की गति के समान सुन्दर गति का कारण होता है उसे प्रशस्तविहायोगति नामक कहते हैं और जो ऊंट, गर्दभ मादि की गति के समान भसुन्दर गति का कारण होता है, उसे अप्रशस्त विहायोगति नामकर्म कहते हैं। जिसके उदय से एक शरीर का भोक्ता एक ही जीव होता है उसे प्रत्येक नामकर्म कहते हैं। जिसके उदय से पृथ्वी, प्रप, तेज आदि एकेन्द्रिय शरीर प्राप्त हो उसे स्थावर नामकर्म कहते हैं। जिसके उदय से भारमा विन्द्रियादि शरीर धारण करता है उसे त्रस नामकर्म कहते हैं । जिस कर्म के उदय से दूसरे जीव अपने को स्नेह दृष्टि से अवलोकन करें उसे सुभग नामकर्म कहते हैं। जिस कर्म के उदय से रूप मादि गुण युक्त होने पर दूसरों की दृष्टि में निंद्य प्रतीत हो वह दुभंग नामकर्म है। जिसके उदय से मनोहर, सुन्दर स्वर हो उसे मुस्वर नामकर्म कहते हैं ।
SR No.090292
Book TitleNamokar Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages427
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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