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णमोकार ग्रंथ
जिस कर्म के उदय से एक शरीर के अनेक जीव स्वामी हो उसे साधारण नामकर्म कहते हैं । जिस कर्म के उदय से बुरा असुहावना स्वर हो उसे दुःस्वर नामकर्म कहते हैं। जिसके उदय से शरीर के अंगोपांग मुन्दर हों उसे शुभ नामकर्म कहते हैं। जिसके उदय से मसाक यादि अवयव रमणीक न हो उसे अशुभ नामकर्म कहते हैं ।
जिसके उदय से अग्नि, जल, पर्वत, दुर्ग, पृथ्वी, वज्रपटल मादि को भेदकर निकल जाने वाला सुक्ष्म शरीर प्राप्त हो उसे सक्ष्म नामकर्म करते हैं।
__जिसके उदय से स्वयं रूकने तथा अन्य को रोकने वाला स्थूल शरीर प्राप्त हो उसे बादर शरीर नामकर्म कहते हैं।
जिसके उदय से जिस पर्याय में जाए उसके अनुसार पाहार प्रादि की पूर्ण प्राप्ति हो वह पर्याप्ति नामकर्म है । वह छः प्रकार का है :
(१) आहार पर्यारिन (२) शरीर पर्याप्ति (३) इन्द्रिय पर्याप्ति (४) प्राणपान पर्याप्ति (५) भाषा पर्याप्ति और (६) मनः पर्याप्ति ।
केन्द्रिय जीवों के भाषा और मन को छोड़कर चार, द्विन्द्रिय, तीन इन्द्रिय, चार इन्द्रिय और अपनी पंचेन्द्रिय जीवों के भाषा सहित पाँच और सनो पंचेन्द्रिय के छहों पर्याप्ति होती हैं।
जिसके उदय से जीय को पूर्ण शरीर प्राप्त न होने से पूर्व ही मरण को प्राप्त हो वह अपर्याप्ति नामकर्म है।
जिसके उदय से धातु, उपधातु अपने-अपने स्थान में स्थिर रहें वह स्थिर नामकम है और जिस कर्म के उदय से शरीर में धातु-उपधातु स्थिर न रहे वह अस्थिर नामकर्म है ।
जिसके उदय से कान्ति सहित शरीर हो वह प्रादेय और कान्ति रहित शरीर हो तो वह अनादेय नामकर्म है।
___जिसके उदय से संसार में जीव की प्रशंसा हो वह यशस्कोति और जिसके उदय से अवगुण प्रगट हों वह अयशस्कीति नामकर्म है ।
जिसके उदय से समवशरण लक्ष्मी का धारक तीर्थकर पद के लक्षणयुक्त शरीर हो यह तीर्थकरत्व नामकर्म है।
इस प्रकार नामकर्म की मुख्य व्यालीस प्रकृति हैं और इनके अवांतर भेदों को जोड़ने में सब तिरानवें हो जाती हैं। गोत्र कर्म :--
जिस कर्म के उदय । संतान के क्रम से चले पाये जीव के सदाचरण निषिद्धाचरण रूप ऊँचनीच गोत्र में जन्म हो वह गोयकर्म है और वह उच्च गोत्र मौर नोच गोत्र के भेद से दो प्रकार का है। जिसके उदय से उत्तम चरित्र वाले लोक पूज्य इक्ष्वाकू मादि कुलों में जन्म हो उसे उच्च गोत्रकर्म और जिसके उदय से निषिद्धाचरण वाले निध, दरिद्री, प्रसिद्ध, दुखों से प्राकुलित कुल में जन्म हो उसे नीच गोत्रकर्म कहते हैं। अन्तराय कर्म :
अब अन्तराय कर्म की प्रकृतियां कहते हैं :
(१) दानांतराय-जिस कर्म के उदय से या तो दान देने की शक्ति ही न हो और यदि हो तो दान देने का यत्न करते हुए भी किसी विघ्न से दान न दे सके वह वानांतराय है।