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________________ णमोकार ग्रंथ द दोष है ।। ११।। तत अथ छियालिस दोष-प्रथम उद्गम दोष कथन । जो दातार के अभिप्राय से प्रकट हों वे उद्गम दोष कहलाते हैं । षट् काय के जीवों के बध द्वारा ग्राहार उत्पन्न करना अधः कर्म दोष है ॥शा साधु का नाम लेकर भोजन तैयार कराना उद्देशिक दोष कहलाता है॥२॥ संयमी का प्रागमन जानकर भोजन बनाने का प्रारम्भ करना अध्वसाय दोष है ।।३॥ प्रासुक भोजन में अप्रासुक भोजन मिला देना पूतिदोष है ॥४॥ संयमो के ग्रहण योग्य भोजन में प्रसंयमी के योग्य भोजन का मिलाना मिश्रदोष है ॥५१॥ रसोई के स्थान से अन्यत्र पकाये हुए या दूसरे के स्थान में रक्खा हुमा भोजन लाकर देना स्थापित दोष है ।।६।। यक्ष नागादि के निमित्त बनाया हया भोजन देना बलि दोष है ।।७॥ पात्र को पड़गाहकर पीछे काल (समय) की हानि वृद्धि करना अथवा नवधा भक्ति में शीघ्रता व बिलम्ब करना प्रावर्तित दोष है ।।।। अंधेरा जानकर मंडप मादि को प्रकाशरा करना प्राविशकरण दोष है l अपने घर में किसी वस्तु के विद्यमान न होने पर दूसरे से उधार लाकर देना प्रामिशिक दोष है ॥१०॥ जो बस्तु अपने घर में मौजूद हो उसको दूसरे गृहस्थी से अपने बस्तु के बदले में लाकर देना परिवर्तक शा तत्काल दरदेश से अ.ई हई वस्त देना अभिघट दोष है |१|| बंधी व छोदा लगी हई वस्तु को खोल कर देना उभिन्न दोष ||१३|| रसोई के स्थान से ऊपर को मंजिल में रखी हुई वस्तु को सीढ़ी पर चढ़कर लाकर देना मालारोहण दोष है ।।१४।। उद्वेग, वास, भय के कारण भोजन देना पाच्छेय दोष है ॥१५।। दातार का असमर्थ होना अनिसार्थ दोष है ॥१६॥ सोलह उत्पादन दोष-जो पाहार प्राप्त करने में अभिप्राय संबन्धी दोष पात्र के प्राश्रय लगते हैं यथा गृहस्थ को मंजन मंडल क्रीडनादिधात्री कर्म का उपदेश देकर माहार ग्रहण करना धात्री दोष है ॥१॥ दातार को अन्य देश का समाचार सुनाकर प्रहार ग्रहण करना दूत दोष है ।।२।। अष्टांग निमित्त ज्ञान दातार को बताकर आहार ग्रहण करना निमिस दोष है ।। ३।। अपनी जाति. कुल, तपश्चरणादि बतलाकर पाहार लेना पाजीवक दोष है ।।४॥ दातार की अभिरुचि के अनुकूल वचन कहकर माहार लेना बनीयक दोष है ॥५॥ दातार को मौषधि बताकर माहार का ग्रहण करना चिकित्सा दोष है ।।६।। क्रोध, मान, माया, लोभ पूर्वक पाहार ग्रहण करना क्रोध, मान, माया, लोभ दोष है॥७-८-६-१०॥ भोजन के पहले दातार की प्रशंसा कर र ग्रहण करना पूर्वस्तुति दोष ॥११॥ माहार ग्रहण करने के पश्चात दाता की प्रशंसा करना पश्चात् स्तुति दोष ।।१२।। प्राकाशगामिनी, जलगामिनी आदि विद्या दातार को बताकर माहार ग्रहण करना विद्या दोष ॥१३॥ सर्पविषधारी विच्छू प्रादि जीवों के विष दूर करने वाला मंत्र बताकर आहार ग्रहण करना मंत्र दोष है ॥१४॥ शरीर की सुन्दरता तथा पुष्टता के निमित्त चूर्णादि बताकर पाहार ग्रहण करना चूर्ण दोष है ॥१५॥ दातार को अवश के वश करने की युक्ति बताकर प्राहार लेना मूल कर्म दोष है ॥१६॥ १४ आहार सम्बन्धी दोष--जो दोष भोजन के माश्रय से लगते हैं । यथा-यह भोजन योग्य है, अयोग्य है, खाद्य है या आखाद्य है, भोजन में ऐसी दौका का होना शंकित दोष है ।।११। सचिक्कन (चिकने) हाप तथा बर्तन में रक्खे हुए भोजन को ग्रहण करना मृक्षित दोष है ॥२॥ सचित्त पात्रादि पर धरा हुमा भोजन ग्रहण करना निक्षप्त दोष है ॥३।। सचित्र पात्रादि में ढका हुमा भोजन ग्रहण करना पिहित दोष है ॥४॥ दान देने की शीघ्रता से भोजन को न देकर या अपने वस्त्रों को संभालकर माहार देना संव्यवहरण दोष है ॥५॥ सूतक पाटि दोषयुक्त अशुब माहार ग्रहण करना दायक दोष है॥६॥ सचित्त मिश्रित पाहार ग्रहण करना उन्मिय दोष है ।।७॥ पग्नि से परिपूर्ण, नहीं पका हुमा है मा जला हुआ प्रयवातिल, तंदुल, हरण मादि से स्पर्श, रस, गंध, वर्ण बदले बिना जल ग्रहण करना
SR No.090292
Book TitleNamokar Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages427
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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