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________________ णमोकार ग्रंथ मागे साधु परमेष्ठी का वर्णन करते हैं:दोहा -पंचमहावत पंचसमिति पंच इंद्रियरोष । षट् प्रावश्यक नियम गुण, अष्टाविंशति बोध ॥१॥ अर्थ-पंच महावत, पंच समिति, पचेन्द्रिय निरोध, षडावश्यक; सप्तनियम गुण इस प्रकार २८ मूल गुण के धारक साधु होते हैं और दया के उपकरण पीछी, शौच के उपकरण कमंडलु और ज्ञान के उपकरण शास्त्र से युक्त होते हैं । आगम कथित ४६ दोष, ३२ अन्तराय, १४ मलदोष को बचाकर शुद्धाहार को ग्रहण करते हैं । ये ही मोक्षमार्ग के साधक होने से साधु और सच्चे गुरू कहलाते हैं । पंचमहावत का दोहा हिंसा अन्त तस्करी, अब्रह्म परिग्रह पाप । मन बच तन से त्याग बो, पंचमहावत थाप ॥ अर्थ --हिंसा, अन्त, स्तेय, अब्रह्म और परिग्रह-इन पांच पापों से सर्वथा त्यागरूप महाग्रत पाँच प्रकार का है। अहिंसा महाव्रत-प्रमत्त गोगपूर्वक षट् । इनके सीन के दामों सौरभन से प्राणों के घात का सर्वथा त्याग करना ॥१॥ अचौर्य महाव्रत-प्रमत्त योग पूर्वक बिना दी हुई वस्तु को ग्रहण करने का त्याग करना। मद्यपि प्रचौर्य व्रत का प्रयोजन विना दी हुई वस्तु को ग्रहण करने का है तथापि मुनि धर्मोपकरण और अन्न के सिवाय दी हुई वस्तु को भी नहीं ग्रहण करते-क्योंकि साधु सर्व प्रकार परिग्रह त्यागी होते हैं ॥२१॥ सत्य महावत-प्रमत्तयोग पूर्वक असत्य वचन का सर्वथा त्याग सत्य महावत है ।।३।। ब्रह्मचर्य महाव्रत वेद के उदय जनित मैथुन सम्बन्धी संपूर्ण क्रियाओं का त्याग करना ब्रह्मचर्य महावत है ॥४॥ परिग्रहत्याग महाव्रत १४ प्रकार अंतरंग परिग्रह और दश प्रकार वाह्य परिग्रह का मन, वचन, काय से सर्वथा त्याग करना परिग्रह त्याग महावत है ॥५॥ पंचसमिति नास बोहा-ईर्याभाषाएषणा, पुनि क्षेपण मादान । प्रतिस्थापना युत किया, पांचों समिति विषान ॥३॥ पर्य--भली प्रकार गमनादि में प्रवृतिसमिति है वह पांच प्रकार है। प्रथम ईर्या समिति जो मार्ग पशु मनुष्याधिक के गमनागमन से खुद गया हो ऐसे प्रासुक मार्ग के सूर्य के प्रकाश में चार हाथ प्रमाण भूमि को भली प्रकार से निरखते हुए सावधानतापूर्वक तीर्थ, दर्शन, गुरूयात्रादि धर्म कार्य तथा आहार, विहार, निहार आदि आवश्यकीय कार्यों के निमित गमन करना ई समिति है। दूसरी भाषा समिति-सर्व प्राणियों के हितकारी, कोमल मिष्ट, प्रिय, सत्य, प्रामाणिक, शास्त्रोक्त मिषयात्व रूपी रोग को दूर करने वाले बचन बोलना भाषा समिति है । तीसरी एषणा समिति-छियालिस दोष, बत्तीस अंतराय और चौदह मल दोष टालकर कुलीन श्रावक के घर तप पीर पुष्टी के प्रयोजन से रहित, अपने निमित्त न किया हुमा अनुनिष्ट पाहार ग्रहण करना एषणा समिति है॥३॥ यहां प्रसंगवश संक्षिप्तरूप से पाहार सम्बन्धो छियालिस दोष, बत्तीस मंतराप और १४ मल का वर्णन किया जाता है।
SR No.090292
Book TitleNamokar Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages427
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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