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णमोकार पंथ
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किया है उसका बदला में एक क्षुद्र बालिका कैसे चुका सकती हूँ ? पर यह जीवन आपके लिए समर्पण कर प्रापके चरणों की दासी बनना चाहती हूं, मुझे स्वीकार कर कृतार्थ कीजिए । वजकुमार ने उसके प्रेमोपहार को सादर ग्रहण किया। दोनों वहां से विदा होकर अपने-अपने स्थान पर चले गये। शुभ दिन में गरुडवेग ने विधिपूर्वक अपनी पुत्री का वचकुमार के साथ पाणिग्रहण कर दिया फिर दोनों दम्पति सानन्द रहने लगे। एक दिन वजकुमार को मालूम हा कि मेरे पिता थे तो एक राजा पर हमारे चाचा ने इनको युद्ध में पराजय कर देश से निकाल दिया है। इस बात पर उसको अपने चाचा पर बहुत क्रोध पाया। वह पिता के रोकने पर कुछ सेना और अपनी पत्नी की विद्या को लेकर उसी समय प्रमरावती पर जा चढ़ा। पुरसुन्दर को इस चढ़ाई का प्राभास न होने से बात की बात में वह पराजित कर बांध लिया गया। पीछे राज्य पिहासन दिवाकर देव के अधिकार में पाया। इस वीरता के कारण वञ्चकुमार बहुत प्रसिद्ध हो गया। अच्छे-अच्छे शूरवीर उसका नाम सुनकर भय मानने लगे।
इसी समय दिवाकर देव की प्रिया जयश्री के भी पुत्र उत्पन्न हुआ। वह तब से ही इस चिंता से दुःखी होने लगी कि बजकुमार के उपस्थित होते हुए मेरे पुत्र को राज्य कैसे मिलेगा ? मेरे पुत्र को राज्य के मिलने में यह एक कंटक है। इसे किसी तरह उखाड़ फेंकना चाहिए।
यह विचार कर वह मौका देखने लगी। एक दिन बच्चकुमार ने अपनी माता के मुख से किसो को यह कहते सुना कि बजकुमार बड़ा दुष्ट है । देखो ! कहां तो यह उत्पन्न हुप्रा और कहाँ पाकर दुःख दे रहा है।
ऐसा सुनते ही उसका हृदय जलने लगा। फिर एक क्षण भी न रुककर वह उसी समय अपने पिता के पास पहुंचा और कड्ने लगा--पिताजी ! सत्य बताइये कि मैं किसका पुत्र हूं, कहां उत्पन्न हुआ हं और यहां क्योंकर पाया? मैं जानता हूँ कि मेरे सच्चे पिता तो पाप ही हैं क्योंकि आपने मेरा अपने पुत्र से भी अधिक पालन-पोषण किया है। पर तब भी यथार्थ वृतांत जानने की मेरी बड़ी उत्कंठा है, इसलिए कृपया ज्यों का स्यों वृतांत कहकर मेरे प्रशांत हुश्य को शान्त कीजिये । अगर यथार्य नहीं कहेंगे तो मैं प्राज से भोजन नहीं करूंगा।
दिवाकर देव बोले -पुत्र ! आज तुम्हें कुछ हो तो नहीं गया है, जो तुम ऐसी बहकी-बहकी बातें कर रहे हो । समझदार होकर भी मभको कष्ट देने वाली ऐसी बातें करना तम्हें शोभा नहीं देता। बञकुमार बोला पिताजी ! मैं यह नहीं कहता कि मैं प्रापका पुत्र नहीं। सच्चे पिता तो प्राप ही हैं, परन्तु मुझको तो यथार्थ जानने की जिज्ञासा है । अतएव मुझे प्राप कृपा करके बतला दीजिए।
वनकुमार के अत्यधिक प्राग्नह से दिवाकर देव को उसका पूर्व वृतांत बताना पड़ा । वमकुमार अपना हाल सुनकर बड़ा विरक्त हुआ । वह उसी समय अपने पिता की बन्दना करने को चल पड़ा, तब उसके माता पिता व कुटुम्बी जन भी साथ गये। सोमदत्त मुनिराज मथुरा के निकट एक गुफा में ध्यान कर रहे थे। उन्हें देखकर सबको पानन्द हुमा सब बड़ी भक्ति के साथ मुनि को नमस्कार कर बैठ गये। तब वमकुमार ने मुनिराज से कहा-'पूज्यपाद ! प्राज्ञा दीजिए, जिससे मैं साधु बनकर निजात्म कल्याण करूं।' धनकुमार को एकाएक संसार से विरक्त हुमा जानकर दिवाकर देव कहने लगे-'पुत्र! तुम ये क्या करते हो ? तप करने का मेरा समय है या तुम्हारा ? तुम पब सब तरह योग्य हो। तुम राजधानी में जाकर अपना राज-काज सम्भालो।
तब वजकुमार बोले-हे पिसा ! ये भोग भुजंग के समान है पौर संसार क्षणभंगुर है । मैं पर पर न जाकर अब नहीं दीक्षा लेकर स्वारमानुभव करूंगा। यह कहकर दिवाकर देव के रोकने पर मी