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________________ णमोकार मंग ॐ ह्रीं मह शवदाय नमः ।।७८८|| यथार्थ मुख के अर्थात् मोक्ष रूप मुख के वक्ता होने से प्राप गंवद हैं ।।७८८।। *ह्रीं मह दांताय नमः ॥७८३॥ मन को वश करने से आप दांत है ।।७८६| ॐ ह्रीं मह दमिने नमः ||१०|| पाप इन्द्रियों को निग्रह करने से दमो हैं ।।७६०॥ ॐ ह्रीं अह मांतिपरायणाय नमः ॥७९॥ क्षमा करने में तथा तत्पर रहने से आप क्षतिपरायण हैं 11७६१|| ॐ ह्रीं अहं अधिपाय नमः ||७६२।। जगत् के अधिपति होने से पाप अधिप हैं ।।७६२॥ ॐ ह्रीं अह परमानंदाय नमः ॥७९॥ पाप अत्यन्त सुखी होने से परमानन्द हैं ।।७६३।। ॐ ह्रीं अह परात्मज्ञाय नमः ।।७९४|| निज पर के ज्ञाता होने से अथवा विशुद्ध आत्मा का स्वरूप जानने से आप परात्मश हैं ॥७६४।। ॐ ह्रीं अहं परात्पराय नमः ॥७६५|| सबसे श्रेष्ठ होने से आप परात्पर हैं ॥७६५ ॐ ह्रीं अह विजगवल्लभाय नमः ॥७६.६।। तीनों लोकों को प्रिय होने से आप विजगदल्लभ । है ।।७६६॥ ॐ ह्रीं ग्रह अभ्यर्चाय नमः ।। ७६७।। सबसे पूज्य होने से आप अभ्यचर्य हैं ।।७६७।। ॐ ह्रीं प्रहं जगन्मंगलोदयाय नमः ।।७६८|| तीनों लोकों में मंगलदाता होने से पाप विजगमंगलोदय हैं ११७६८|| ॐ ह्रीं अर्ह त्रिजगत्पतिपुज्याध्रिने नमः ||७६६ प्रापके चरण कमल तीनों लोकों में इन्द्रों के द्वारा पूज्य होने से प्राप त्रिजगत्पतिपूज्यांघि कहलाते हैं ।।७६६।। ॐ ह्रीं अहं त्रिलोकाशिखामणयेनमः ।।८००।। तीनों लोकों के शिखर के शिखामणि होने से पाप त्रिलोकाग्रशिखामणि कहलाते हैं ।।८००।। ___ॐ ह्रीं अहं त्रिकालदशिने नमः ।।८०१॥ भूत, भविष्यत्, वर्तमान तीनों कालों को प्रत्यक्ष देखने से प्राप त्रिकालदर्शी हैं ।।८०३।। _____ॐ ह्रीं ग्रह लोकेशाय नमः ।।८०२।। तीनों लोकों के ईश (स्वामी) होने से पाप लोकेश हैं ।।०२।। ॐ ह्रीं अह लोकधारे नमः ।। ८०६।। समस्त प्रापियों की रक्षा का उपदेश देने से पाप लोकधाता है ।।८०३॥ ॐ ह्रीं अहं दृढ़वाय नम: ।।८०४। स्वीकार किये हुए निश्चय चारित्र को निश्चय कर देने से पाप दवती हैं।।८०४।। ॐ ह्रीं मह गर्व लोकातिशाय नमः ।।८०५|| तीनों लोकों के प्राणियों में सर्वोत्कृष्ट होने से प्राप सर्वलोकातिशय है ॥८०५।। 'ॐ ह्रीं अहं पूज्याय नमः ।। ८०६।। पूजा के योग्य होने से प्राप पूज्य हैं ॥८०६॥ ___ॐ ह्रीं मह सर्व लोकसारथिये नमः ।।८०७|| समस्त प्राणियों के लिये मुख्य रीति से मोक्ष. मार्ग का स्वरूप दिखलाने से आप सर्वलोकै कसारथि कहे जाते हैं ।।८०७॥ *ह्रीं पहं पुराणाय नमः ॥८॥ सबसे प्राचीन होने से अथवा मुक्ति पर्यन्त शरीर में निवास करने से पाप पुराण हैं ।।०८।। ॐ ह्रीं अहं पुरुषाय नमः ।।८०६॥ सबसे बड़े होने से भयका सबको तृप्त करने से अथवा पूज्य
SR No.090292
Book TitleNamokar Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages427
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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