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णमोकार ग्रंथ
ज्ञान मव-इस प्रकार उक्त पाठ पदार्थों का प्राश्रय पाकर मद प्रादुर्भत होता है। इन मदों को अज्ञानी जन ही धारण करते हैं, ज्ञानी नहीं। ज्ञानी विचार करते हैं कि मैं किसका मद करूं? मेरी निज वस्तु अर्थात निजात्मा का स्वभाव जो ज्ञान व दर्शन है वह अभी मुझे प्राप्त हुआ ही नहीं तो जब मेरी हो वस्तु मुझ प्राप्त नहीं तो मैं इन पर वस्तुयों को पाकर कैसा मद करूं? मेरा तो केवल एक ध्येय है - केवल ज्ञान, उस ज्ञान को जानावरणी कर्म ने प्राच्छादित कर दिया है और अब किंचित् ज्ञानावरणी कर्म के क्षयोपशम में किचित् ज्ञान प्राप्त हुआ तो मैं किस बात के लिए मद करूं ? कभी मैंने तिर्यच गति में जाकर जन्म लिया तब अज्ञान में मग्न होकर आत्महित का विचार नहीं किया और कभी थाबर में जा उपजा तो अक्षर के अनन्तवें भाग ज्ञान पाया। जब कुछ सुध-बुध ही नहीं तो आत्महित के विचार का क्या कहना। अब कुछ जाड्य.सस्थिवत (वस्तु) का स्वरूप कुछ तो समझ में पाये और कुछ न आवे । संक्षेप ज्ञान पाकर मद करूंगा तो पुन: नरक निगोद में भटक भटककर अनन्त काल पर्यन्त दुःख पाऊँगा । ऐसा विचार कर ज्ञानी जन शान का मद नहीं करते हैं। ये मद बिष्णु आदि अन्य देवों में पाए जाते हैं परन्तु ये दोष लोकालोक प्रकाशक सकल परमात्मा अर्हन्त के नहीं होते हैं प्रतः उन्हें मेरा बारम्बार नमस्कार हो ।
(२) प्रतिष्ठामद---इसे भी ज्ञानी जन नहीं करते हैं । ज्ञानी जन विचार करते हैं कि मेरी प्रात्मा शुद्ध स्वरूप तीन जगत द्वारा पूज्य है । और यह ही मेरा आत्म विभाव रूप में परिणमित हो गया है, अतः स्थावर योनि में अनेक पर्याय धारण कर पैसों में बिका है । अतः मैं मद कैसे करूं ? मेरा आत्मा तीन लोक का स्वामी है सो अब मैं नामकर्म की प्रकृति प्रादेयता के क्षयोपशम से इन मनुष्यों द्वारा आदर भाव को प्राप्त हो गया है । यह तो मेरा जब तक पुण्य प्रकृति का उदय है, तब तक मेरा प्रादर सत्कार होता है पुण्य के क्षीण होते ही मेरे पास कोई नहीं पायेगा और अब भी मैं यदि मद कगा तो नरक निगोद में सड़कर बहुत दुःख भोगना पड़ेगा। ऐसा विचार कर ज्ञानी ऐश्वर्य मद (प्रतिष्ठा मद) नहीं करता है।
(३) कुलमन । ज्ञानी लोग अपने कुल का मद नहीं करते हैं। कारण कि ज्ञानी ऐसा विचार करते हैं कि यह जो कुछ है सो मेरा नहीं है। सब स्वार्थ के साथी हैं मेरा तो निश्चित कुल चार अनन्त चतुष्टय ही है। वह तो मुझे प्राप्त नहीं हुआ है और जो कोई अब शुभ कर्म के उदय से उत्तम कुल पाया है जब तक मेरा शुभ उदय है तब तक ही यह है तब मैं इस नाशवान कुल का क्या मद करू ? यदि मैं रद करूंगा तो फिर नरक गति में पड़कर अनेक दुःख भोगना पड़ेगा। ऐसा समझकर के ज्ञानी जन कुल का मद नहीं करते हैं।
(४) जातिमद-उसको भी ज्ञानी कभी धारण नहीं करते हैं । कारण कि ज्ञानी ऐसा विचार करते हैं । कि मेरी जाति तो केवल सिद्ध पद ही है और ये उच्च जाति को अब मैं प्राप्त हो गया हूं तो जब तक मेरा शुभ कर्म का उदय है तब तक मैं उच्च जाति में हूं। अब जो मैं इस जाति का मद करूंगा तो फिर एकेन्द्रिय, दो इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय, चार इन्द्रिय इन नीच जातियों में भटक-भटक कर दुःख भोगना पड़ेगा । ऐसा विचार करके ज्ञानी कभी भी जाति मद नहीं करते हैं।
(५) बल मद- ज्ञानी बल मद भी नहीं करते हैं । ज्ञानी विचार करता है कि यह बल मेरे अन्तराय कर्म के क्षयोपशम से प्राप्त हुआ है, सो अब यह बल जब तक मेरा पूर्व पुण्य है तब तक मेरे साय रहेगा। चैतन्य प्रात्मा इसके अन्दर रहता है जब तक बल भी शरीर के अन्दर ठहरता है पीछे वह बल भी नष्ट हो जाता है अब यह बल पाना तो मेरा तब सफलता को प्राप्त हो, जब छ: काय के जीवों