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________________ णमोकार च की दया करू: तब ही इसी शरीर बल की सफलता है। विनाशिक बल का मद मैं कैसे करूं, कारण कि यह बल तो रोग के पाते ही घट जाता है इसलिए मैं इस प्रकार शरीर बल की प्राप्ति के बारे में कैसे मद करूं? दूसरे यह बल तो घी, दूध, फल प्राधि भक्षण करने से ही प्राप्त होता है । और यदि घी, दूध, प्रादि पुष्टिकारक पदार्थों का भक्षण न करूं तो-शरीर का पराक्रम आदि सब नष्ट हो जाता है इसलिए विनाशी बल का मद करना व्यर्थ है। मेरा बल तो अनन्त बल है । जब तक वह प्राप्त नहीं है तब तक मद कैसा करूं। ऐसा समझर ज्ञानी बल का मद नहीं करते हैं। (६) ऋद्धि मद -अर्थात् ऐश्वर्य मद-उसका ज्ञानी लोग मद नहीं करते हैं। ज्ञानी लोग ऐसा विचार करते हैं कि यह एश्वर्य तो क्षण भंगुर एवं विनाशीक है । यह तभी तक रहता है जब तक मेरे शुभ कर्म का उदय है। पीछे अशुभ कर्म के उदय होने पर यह रंक कर देता है तथा अनेक प्रकार के दुःख उठाने पड़ते हैं-ऐमा जानकर ज्ञानी लोग धन का मद नहीं करते हैं। (७) तप मद -- ज्ञानी लोग अपने तप का भी मद नहीं करते हैं। कारण कि ज्ञानी ऐसा विचार करते हैं कि मैं तप कहाँ करता हूं? सम्यक्त्व नप तो मुझको अभी तक प्राप्त नहीं ना । जो प्राप्त हो जाता तो अब तक संसार में जन्म-मरण को क्यों प्राप्त होता । इतना दुःख क्यों सहता ? मेरा तप करना तो तभी सफल हो सकता है जबकि मैं दर्शनावरणीय आदि धातिया कर्मों का क्षय करके निज चतुष्टय अर्थात अनन्त दर्शन, अनन्त ज्ञान, अनन्त सुख. अनन्त वीर्य को प्राप्त हो जाऊँ । तब ही मेरा तप करना सफल है और इस क्ष द्रत का जो मैं मकरमा तो पुनः संसार में प्र काल तक नाना प्रकार के दुःखों को मुझे भोगना पड़ेगा। ऐसा विचार करके ज्ञानी जीव तप का मद नहीं करते हैं। (८) शरीर मद-शरीर के प्रति भी ज्ञानी लोग मद नहीं करते हैं । अज्ञानी अर्थात बहिरात्मा जीव ही अपने शरीर का मद करते हैं । ज्ञानी इसके बारे में ऐसा विचार करता है कि यह शरीर अस्थिर, विनाशी, सप्त धातु अर्थात् मांस, रस, अस्थि, रक्त, मज्जा, दा, वीर्य और सात ही उप धातु अर्थात् वात, पित्त, कफ, शिर, स्नायु, चाम और जठराग्नि ऐसे सात से भरे हुऐ घर के समान है, तब ऐसे शरीर का मैं कैसे मद करूं? यह जल के बुलबुले के समान चंचल और विनाशीक है । ज्ञानी जन ऐसा विचार करते हैं कि यह शरीर महादुर्गन्धमय घृणा रूप है जो प्रातः काल के समय सुन्दर दिखता है पौर शाम को इस के अन्दर रोग प्रकट हो जाता है ऐरे रोगमयी शरीर के प्रति कैसा मद करूं? ये शरीर कृतघ्नी सदृश है। भावार्थ-जैसे कृतघ्नी का पोषण करते-करते भी समय पर वह काम नहीं आता है इसीतरह से यह देह भी कृतघ्नी के समान घी, दूध आदि उत्तमोत्तम रस महण करते रहने से भी दुर्बल हो जाता है और यह देह बहुत मूल्यवान सुगन्धित पदार्थ के लगते रहने से भो दुधन्ध रूप हो जाता है अत: ऐसे अवगुण से भरी हुई देह का ज्ञानी कभी भी मद नहीं करते हैं। ज्ञानी ऐसा विचार करते हैं कि मनुष्य देह मुझे बहुत दुर्लभता से प्राप्त हुई है सो यह मनुष्य जन्म और देह का पाना तब ही सार्थक होता है जब इससे मैं तप करूंगा और निज स्थान को पाऊं तब ही यह सार्थक है। अन्यथा मैंने चिन्तामणि रत्न के समान दुर्लभ यह शरीर अनेक बार पाया और जैसे काग रत्न को फेंक देते हैं उसी प्रकार में अनादि काल से इस शरीर रत्न को फेंकता पा रहा हूं और मैंने विषय भोगों में रत होकर दुर्लभ मनुष्य पर्याय को खोया परन्तु मैंने निज स्थान मोक्ष पद को नहीं पाया इसलिए अब भी मैं. उपाय करके संसार से छूटने का यत्न नहीं करूंगा तो बारम्बार मुझे ससार में भटक-भटक कर मनेक प्रकार की नीच योनियों में जाना पड़ेगा और अनेक प्रकार के दुःख भोगने पड़ेगे ऐसा विचार कर
SR No.090292
Book TitleNamokar Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages427
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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