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________________ णमोकार पंप २२७ सारा वृसात कह सुनाया। सुनकर सुग्रोव ने कहा-"विराधित ! यदि तेरे स्वामी मेरा दुःख दूर कर दें तो मैं भी उनकी प्रिया का शीघ्र ही पता लगाऊंगा । इस प्रण से मैं भी कभी विचलित नहीं होऊंगा।" विराधित ने रामचन्द्र से जाकर कहा-"स्वामी ! वानरवंशाधिपति सुग्रीव मापके पास पाया है । वह कहता है, कि यदि रामचन्द्र मेरा दुःख दूर कर देंगे तो सीता का सात दिन के भीतर-भीतर पता लगाऊंगा । यदि प्रापकी प्राशा हो तो सुग्रीव को ही उपस्थित किया जाए।" रामचन्द्र की प्राशा होने पर सुग्रीव को उपस्थित किया गया । रामचन्द्र ने सुग्रीव का यथोचित पादर सत्कार किया और परस्पर कुशल-वार्ता होने के उपरान्त रामचन्द्र ने सुग्रीव से पूछा--"सुग्रीव ! तुम्हें क्या दुःख है !" गीय महा-- ह री मटनी किष्किघा है । मेरी तारा नाम की स्त्री अति सुन्दर और नवयौवना है। उसके सौन्दर्य पर मुग्ध होकर दुष्ट विद्याधर मेरे समान रूप बनाकर मेरे महल में धुस गया था। मेरी प्रिया ने उसको चाल ढाल से यह जाना कि यह मेरा खास पति नहीं है । उसे घर में नहीं जाने दिया । तारा के पाशय को समझ कर उस दुष्ट ने मेरे घर की समस्त गुप्त बातें कह सुनाई । सुनकर मेरी स्त्री ने कहा --- "हे दुष्ट दुराशय ! सूने सब बातें तो मेरे स्वामी के समान कह दी परन्तु तुझे पलना तो मभी तक उन जैसा नहीं पाया। उसका इतना कहना था कि उसने मुझे अपने घर पर भाता हमा देखकर चाल भी सीख ली, परन्तु उस समय मेरी स्त्री ने परम दक्षता की कि मुझको और उसे सामानाकृति बाला देखकर महल के पट बन्द कर लिए। जब मैं महल के द्वार पर पहुंचा तो मैंने कपटी वेषी सुप्रोष को ललकारा-"पापी ! तकौन है और किस लिए कपट से ऐसा वेष बनाकर मेरे घर में घसना चाहता है?" उत्तर में उसने भी मेरे जैसे ही वाक्य कहे। यह विचित्र लीला देख मन्त्रियों ने हम दोनों को ही मन्दर जाने से रोका और कहा जब तक इस बात का निर्णय न हो विः वास्तव में सुग्रीव कौन है तब तक हम किसी को भी भीतर प्रवेश नहीं करने देंगे । हम दोनों नगर से बाहर जंगल में रहने लगे । जब मुझसे अपनी प्रिया का वियोग जनित दुख सहा नहीं गया तो मैं रावण के निकट गया और अपनी समस्त व्यथा का वर्णन किया, पर उससे भी मेरा उपकार न हो सका। रावण तथा और भी बहुत से विद्याधर और हनुमान प्रादि इसकी परीक्षा के लिए प्राए परन्तु किसी से कुछ प्रतिकार न बन सका। अन्त में अब सब भोर से निराश होकर मापकी सेवा में उपस्थित हुमा हूँ। विश्वास तो यही है कि प्रब इस असीम दुख का मापके द्वारा अंत हो जायेगा मेरा परम प्रकर्ष पुण्योदय है जो प्राज पाप जैसे महापुरुषों के दर्शन हुए। सुनकर रामचन्द्र ने कहा- "सुग्रीव ! चिन्ता न करो। मैं तुम्हें दढ़ विश्वास के साथ कहता है कि इस बात का ठोक ठीक पता लगाकर मैं तुम्हारा न्याय करूगा और तुम्हारी प्रिया तुम्हें दिलवा दंगा परन्तु उसके बाद तुम्हें भी अपना प्रण पूरा करना होगा। सुग्रीव ने रामचन्द्र के कहने को स्वीकार किया। उसके बाद सुग्रोक राम लक्ष्मण को अपनी राजधानी में ले गया और नगर के बाहर उन्हें एक स्थान पर ठहरा दिया, वहाँ पर कृत्रिम वेषधारी सग्रीव के पास युद्ध के लिए दूत भेज दिया। वह अपनी प्रचर सेना लेकर संग्राम के लिए माया पौर दोनों सुग्रीवों का युद्ध प्रारम्भ हुमा। सच्चा सुग्रीव मायामयी सुग्रीव की गदा के भाघात से मूछित हो गया। तब उसके कुटुम्बो जनों ने अपने स्थान पर ले जाकर शीतलोपचार किया। मायावी सुग्रोव उसको मरा जानकर मानन्द मनाता हुमा अपने स्थान पर वापिस लौट गया। जब सुग्रीव सचेत हुआ, तब उसने रामचन्द्र से कहा-"महाराज! मापने उसे क्यों जाने दिया?
SR No.090292
Book TitleNamokar Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages427
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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