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णमोकार ग्रंथ
उत्तर में रामचन्द्र ने कहा - "सुग्रोव ! क्या कहें ? तुम दोनों एक ही समान थे । प्रतएव तुम्हारा निश्चय न हो सका कहीं संशय ही संशय में तुम्हारी मृत्यु हो जाती तो बहुत बुरा होता । ऐसा विचार कर उसको छोड़ दिया । अब कुछ चिंता नहीं । उसे फिर बुलवाते हैं ।
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यह कह कर रामचन्द्र ने पुनः कृत्रिम सुग्रीव की युद्ध के लिए बुलाया। वह फिर भी बड़े साहस पूर्वक संग्राम के लिए युद्धभूमि में आया। इस बार रामचन्द्र के दिव्य तेज को देखकर सादृश्य रूप बना देने वाली कृत्रिम सुग्रीव की बैताली विद्या तत्काल भाग गई और वह अपने पूर्ववत रूप में श्री गया । यह देख सबने असली सुग्रीव को पहचान लिया और उसका बहुत सत्कार किया । सुग्रीव प्रपने पुत्र आदि के साथ अपने घर पर गया और वियोग रूपी अग्नि के द्वारा कुश हुई अपनो प्राणप्रिया से मिला तथा सुखोपभोग करने लगा | बहुत दिनों से बिछुड़ी हुई अपनी प्राणप्रिया को पाकर विषय भोगों में ऐसा मन हुआ कि रामचन्द्र के साथ की हुई प्रतिशा को भूल गया और छः महीने बीत गये। उधर ज्यों ज्यों दिन बीतने लगे त्यों त्यों रामचन्द्र को अधिक दुःख होने लगा । उन्होंने लक्ष्मण से कहा- "भाई, देखो जब मनुष्य पर विपत्ति श्राती है तब तो अपना कार्य सिद्ध करने के लिए जिस तिस की सेवा शुश्रूषा, प्रण प्रतिज्ञा करता फिरता है और जब दुख निवृत्त हो जाता है तब उसे किसी के उपकार प्रतिशा का ध्यान नहीं रहता । सुग्रीव को देखो, पहले कितनी दृढ़ प्रतिज्ञा करता था और अब अपना काम निकलने पर प्रतिज्ञा को भूल गया ।"
सुनकर लक्ष्मण को सुग्रीव की इस स्वार्थ बुद्धि पर बड़ा क्रोध श्राया । वह उसी समय सुग्रीव के पास पहुंचे। उन्हें देखते ही सुग्रीव बहुत चिंतातुर हुआ। आप सिंहासन से उठकर नीचे बैठा मौर लक्ष्मण को उस पर बैठाया । लक्ष्मण ने सुग्रीव से कहा 'सुग्रीव ! क्या तुम्हें यही उचित या कि अपनी सात दिन की प्रतिज्ञा तक को भूल गये ? क्या प्रतिज्ञा पूर्ण करना इसी को कहते हैं ? जो तुम तो महल में बैठे हुए सुखोपभोग भोगो और हमारे भाई वन में दुख भोगें । सच है जो स्त्री जन्य सुख में लीन होते हैं उन्हें अपने व्रत, नियम, प्रण आदि के भंग होने का कुछ भी ध्यान नहीं रहता।" सुग्रीव ने कहा - "स्वामी ! है तो आज सातवां ही दिन । यदि में समय पूर्ण होने तक यह कार्य न कर दूं तो माप मुझे दोष दीजिएगा ।"
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इतना कह सुग्रीव लक्ष्मण सहित रामचन्द्र के पास आया और उनके चरणों में पड़कर अपने अपराध को क्षमा मांगी। उसके बाद सुग्रीव ने अपने दक्ष विद्याधरों को सोता का समाचार लाने की आज्ञा दी। आज्ञा पाते ही विद्याधर चारों ओर गये। उनमें से एक विद्याधर वहां भी झा निकला जहाँ रावण के द्वारा विद्याहरण कर समुद्र में डाल देने वाला रत्नजटी नाम का एक विद्याधर हाय ध्वजा लिए हुए आने जाने वालों को संकेत कर रहा था। संकेत करते देखकर वह नीचे उतरा मौर रत्नजटी को पहचान कर उसने उससे पूछा कि हे मित्र कहो, तुम यहां कैसे आए और कैसे यहाँ इस दशा में ठहरे हुए हो ?
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तब उसने रावणकृत अपने पर बीती हुई सारी घटना कह सुनाई इससे उसने अच्छी तरह समझ लिया कि सीता को रावण ही हर ले गया है इसमें कोई संदेह नहीं है तब वह रत्नजटी को अपने विमान में बैठाकर सुग्रीव के पास लाया और उससे उसका वार्तालाप करवाया, रत्नजटी ने सुग्रीव से समस्त वृत्तांत ज्यों का त्यों कह सुनाया । सुग्रीव आनन्द दायक समाचार सुनकर प्रसन्न होता हुआ उसे साथ लेकर रामचन्द के पास पहुचा और कहा- महाराज ! ये सीता जी का वृतांत अच्छी तरह जानता