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________________ ३६५ णमोकार च तब मुनिवर ने कहा- "जो समुद्र तिरकर आएगा वही इसका वर होगा ।" उसी दिन से राजा ने हमको यहां रक्खा है सो हे स्वामिन्! पधारो और अपनी वियोगिनी को व्याहो ।" इस प्रकार कितने ही अनुचर श्रीपाल को नगर की ओर चलने के लिए विनती करने लगे और कितनों ने जाकर राजा को खबर दी। राजा ने हर्षित होकर उन लोगों को बहुत इनाम दिया और उबटन, तेल, फुलेल, गरजा आदि भेजकर श्रीपाल जी को स्नान कराया और सुन्दर वस्त्राभूषण भी धारण कराकर बड़े उत्साह से गाजे-बाजे सहित नगर में लाए। प्रत्येक घर में ग्रानन्द मंगल होने लगा राजा ने शुभ मुहूर्त में निजपुत्री गुणमाला का पाणिग्रहण श्रीपाल से कराया तथा बहुत-सा दहेज, नगर ग्राम, हाथी, घोड़े, असवार, पयादे और वस्त्राभूषण दिए । श्रीपालजी बिना प्रयास स्त्री-रत्न को पाकर सुख से समय 'बिताने लगे। वे बहुत प्रसन्न हुए परन्तु जब कभी भी रयणमंजूषा और मंनासुन्दरी की स्मृति हो श्राती थी उस समय उदास हो जाते थे । दैवयोग से कुछ समय के जीते कुद्वीप में भा पहुंचे सो वहां डेरा डालकर सेठ ने बहुत उत्तम मनुष्यों सहित अमूल्य वस्तुए लेकर राजा के पास भेंट में दीं। भेंट पाकर राजा बहुत प्रसन्न हुए और सेठ का बहुत सत्कार किया । कुछ समय के पश्चात् एकाएक सेठ की दृष्टि वहाँ पर बैठे हुए श्रीपाल के ऊपर पड़ी। उसे देखते ही मुरझाये फूल की तरह कुम्हला गया, मुख श्याम दिखने लगा श्वासोच्छवास को गति रुक गई, शरीर कांपने लगा परन्तु यह भेद प्रगट न होने पाए श्रतएव वह शीघ्र ही राजा से बाज्ञा मांगकर अपने स्थान पर आया और तुरन्त ही मन्त्रियों को बुलाकर विचारने लगा - "अब क्या करना चाहिए क्योंकि जिसने मुझ पर बहुत उपकार किए थे और मैंने उसे समुद्र में गिरा दिया था सो वह अपने बाहुबल से तिरकर यहां का पहुंचा है और न मालूम उसकी राजा से कैसे पहचान हो गई ?" तब एक दीर बोला- "हे सेठ ! पुण्य से क्या-क्या नहीं हो सकता है ? वह समुद्र तिरकर यासा और राजा ने उसे अपनी गुणमाला नामक कन्या व्याह दी ।" इससे तो सेट और भी दुःखी हो गया । ठीक हो है--' दुष्ट मनुष्य किसी की बढ़ती देखकर सहन नहीं कर सकते हैं ।' चोर साह से भयभीत होता ही है और वह श्रीपाल का चोर था प्रतः वह मारे भय और चिन्ता के व्याकुल हो गया और भोजन-पान सब भूल गया। वह सोचने लगा कि किसी तरह इसका अपमान राजा के सामने कराया जाय तभी मैं बच सकूंगा अन्यथा अब मुझे यह जीवित नहीं छोड़गा इसीलिए वह अपने मंदिवरों से बोला कि कुछ ऐसा ही उपाय करना चाहिए। तब मन्त्रि बोले - "हे सेठ ! चिन्ता छोड़ो और उसी दयालु कुमार श्रीपाल की शरण ले लो तो तुमको कुछ भी बाधा न होगी और यह भेद भी कोई जानने न पायेगा ।" परन्तु यह बात सेठ को अच्छी नहीं लगी । तब उनमें से एक दुष्ट मंत्री बोला— सेठ जी ! क्या मृग सिंह के सामने जाकर रक्षा पा सकता है, कदापि नहीं । इसी प्रकार आपने जिसके साथ भलाई के बदले बुराई की है सो क्या वह अब अवसर मिलने पर तुमको छोड़ देगा नहीं, कभी नहीं । अतएव अब मेरी समझ में यह प्राता है कि भांड़ों को बुलवाकर उन्हें द्रव्य का लोभ देकर राज्य सभा में भेजा जाय। वे प्रथम अपनी लीला दिखाकर श्रीपाल को बेटा, भाई, भतीजा आदि कहकर लिपट जाये जिससे राजा उसे भाँडों का जाया जानकर प्राण दंड 'देंगे जिससे हम तुम सब बच सकेंगे क्योंकि राजा इसके कुल, गोत्र आदि के पूर्वज मनुष्यों से तो परिचित है ही नहीं अतः हमारी बात जम जाएगी ।"
SR No.090292
Book TitleNamokar Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages427
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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