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________________ गमोकार प्रय उन लोगों के दीन वचनों पर इस सती को दया आ गई तब वह क्रोध को छोड़कर खड़ी हो प्रभु की स्तुति करने लगी- "हे जिननाथ ! धन्य हो । सच्चे भक्त वत्सल हो। ऐसे कठिन समय में इस अवला की सहायता की । अब हे प्रभु! आपके प्रसाद से जिस किसी ने मेरी सहायता को हो सो इन दोनों पर दया करके छोड़ दो"- यह सुनकर उस जल देवी ने उसे बहुत कुछ शिक्षा देकर छोड़ दिया और रयण मंजूषा को धैर्य देकर बोली-“हे पुत्री तु चिन्ता मत कर । थोड़े ही दिन में तेरा पति तुझसे मिलेगा और वह राजानों का भी राजा होगा। तेरा सम्मान भी बहुत बढ़ेगा हम सब तेरे पास पास रहने वाले सेवक हैं ! तुझे कोई भी हाथ नहीं लगा सकता है।" इस प्रकार बे देव-देवी धवल सेठ को उसके कुकर्मों का दंड देकर और रयणमंजूषा को धैर्य बंधाकर अपने-अपने स्थान को गए मोर उस सती ने अपने पति के मिलने का समाचार सुनकर व शीलरक्षा से प्रसन्न होकर प्रभु की बड़ी स्तुति की। वह अनशन ऊनोदर आदि करके अपना काल व्यतीत करने लगी और वह पापी धवल सेठ लज्जित होकर उसके चरणों में मस्तक झुकाकर वोला-“हे पुत्री ! अपरा , क्षमा करो। मैं बड़ा अधम पापी हूं और तुम सच्ची शील धुरंधर हो।" तब साध्वी रयणमंजूषा ने उसे क्षमा कर दिया। अब इस वृत्तान्त को यहीं छोड़कर श्रीपाल व्यवस्था विवरण लिखते हैं श्रीपाल जब समुद्र में गिरे तब ही से उन्होंने यह तो जान लिया था कि यह सब माया जाल धवल सेठ का है परन्तु 'उत्तम पुरुष किमी की साक्षी ब निर्णय हुए बिना किसी पर दोधारोपण नहीं करते अपितु अपने अपर प्राये हुए उपसर्ग को पूर्वोपार्जित कर्मोदय जनित जानकर समभावों को किंचित् भी मलिन न कर पंचपरमेष्ठी मंत्र का पाराधन करके इसी सहारे से समुद्र से तिरने का प्रयत्न करने लगे। तिरते हुए उन्हें समुद्र की लहरों से उछलता हुन्मा एक लकड़ी का तख्ता दृष्टिगत हुया तो उसे पकड़ कर उसी के सहारे से तिरने लगे । जब नींद आती तो उसी तख्ते पर प्रालस्य मिटा लेते थे नके लिए दिन-रात समान ही था। खाना-पीना केवल एक जिनेन्द्र का नाम ही था और वही त्रिलोकी प्रभु उन्हें मार्ग बतलाने वाला था। इस प्रकार महामंत्र के प्रभाव से तिरते-तिरते वे में इस प्रकार महामंत्र के प्रभाव से तिरते-तिरते वे महापुरुष श्रीपाल कुमकुम द्वीप में जाकर किनारे लगे। वहां मार्ग के खेद से व्याकुल होकर निकट ही एक वृक्ष के नीचे मचेत हो सो गए। इतने में वहां के राजा के अनुचर वहां पर आ पहुंचे और हर्षित होकर परस्पर कहने लगे"धन्य है राजकन्या का भाग्य कि जिसके प्रभाव से यह महापुरुष अपने भुजवल से अथाह समुद्र को पार कर पाज यहां तक मा पहुंचा है । अब तो हम सब का हर्ष का समय मा गया है क्योंकि यह शुभ समाचार राजा को देते ही वे हम सबको निहाल कर देंगे। महा ! यह पुरुष कैसे सुन्दर शरीर वाला है मानों विधाता ने इसका शरीर साँचे में ढालकर बनाया हो यह नागकुमार गन्धर्व और इन्द्र से भी अधिक सुन्दर है-" इत्यादि वे सब परस्पर बातें कर ही रहे थे कि श्रीपाल की निद्रा खुलगई। वे अकस्मात उठ खड़े हुए और पूछने लगे-"तुम कौन हो? यहां क्यों पाये? मुझसे क्यों डरते हो? मेरी स्तुति क्यों करते हो ? यह निःशंक होकर कहो।" तब वे अनुचर बोले---हे स्वामिन् ! कुकुमपुर का राजा सतराज और रानी बनमाला है वे अपनी नीति और न्याय से सम्पूर्ण प्रजा के प्रेम पात्र हो रहे हैं। उस राजा के अनुपम सौंदर्यवान् पोर गुण की खान, सब कला प्रवीण गुणमाला नाम की कन्या है। एक दिन राजाने कन्या को यौवनावस्था में पदार्पण करते हुए देखकर मुनिराज से पूछा-“भगवन् ! इस कन्या का स्वामी कौन होगा?"
SR No.090292
Book TitleNamokar Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages427
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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