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णमोकार अंथ अर्थात् मद्य के पान करने से चित्त में भ्रांति उत्पन्न हो जाती है और चित्त में भ्रांति होने से फिर मनुष्य पाप कर्मों को करता है। पाप करके फिर दुर्गति को प्राप्त हो जाता है। इस कारण से ही मूढ़ पुरुषों को तथा विवेकी जनों को शराब पीना योग्य नहीं है और भी कहा गया है
मतो हिनस्ति सर्व मिथ्या, प्रलपिति हि विकल या बुद्धया।
मातरमपि कामयते, सायचं मद्यपानमतः परम् ॥ अर्थात मद्यपान करने से मदोन्मत्त हा पुरुष बेसुध होकर माता-पिता और गुरु को भी मार देता है और विकलबुद्धि करके झूठ भी बोलता है और मद्य पीकर माता, पुत्री, बहन पादि की सुध भूलकर निर्लज्ज हुमा अनुचित वर्ताव भी करता है । शराबी को जब विशेष नशा हो जाता है, तब व्याकुल होकर चलता-चलता पृथ्वी पर गिर पड़ता है। अयोग्य बकवास करने लगता है। जितने सन्निपात के चिन्ह हैं, वे सब मद्यपान में दिखाई देते हैं । इस पर एक कवि कहते हैं---
सवैयाकृमि रासि कुवास सराय दहे शुचिता सब छूवत जात सही। जिहि पान किये सुधि जाए हिये जननी जन जानत नारि यही ॥ मदिरा सम और निषिद्ध कहा यह जानि भले कुल में न गही,
धिक है उनको वह जीभ जलो जिन मइन के मतलीन कही। इसके पीने वालों की जो दुर्गति होती है, वह आँख से नहीं देखी जा सकती, उसका वर्णन नहीं किया जा सकता। वहुत लोगों का विचार है कि मदिरा पान करना बल प्रदान करता है और भोजन को पचाने में बहुत लाभदायक होता है, किन्तु यह विचार युक्तिसंगत नहीं है क्योंकि जितने मद्यपायी हैं उनको मदिरापान करने के पश्चात् कुछ समय के लिए अंगों में पुष्टता मालूम होती है और शरीर में कुछ बल भी मालूम होता है परन्तु वह आंतरिक और असली नहीं होता इसलिए उनका बल शीघ्र ही नष्ट हो जाता है। जिस प्रकार क्रोध के आवेश के समय में मनुष्य में एक प्रकार की शक्ति पा जाती है और वह उस अवस्था में साधारण अवस्था से कुछ विशेष बल का काम कर लेता है, पर नशा या जाने पर कुछ नहीं रहता वरन् उस समय असलो बल भी कम हो जाता है। उसी प्रकार मद्यपान द्वारा प्राप्त बल की यही दशा है । जिस समय मद्य का नशा उतर जाता है उस समय उनकी हालत जब देखी जाती है तब वे अपने मुख से ही अपनी खराब दशा बताते हैं कि मेरा शरीर टूट रहा है, बिना मदिरा पान किये मुझसे कोई काम नहीं हो सकता है और वह उस वक्त बिलकुल निकम्मा हो बैठता है मद्यपान से मूळ, कंपन, परिश्रम, भय, भ्रम, क्रोध, काम, अभिमान, नेत्रों के रक्त वर्ण हो जाने आदि के सिवाय शारीरिक शक्ति भी घटती जाती है और अनेक रोग उत्पन्न हो जाते हैं और यह मानसिक एवं मात्मिक उन्नति में भी बहुत बाधा डालती है, इसको पानकर मनुष्य मात्मिक उन्नति तो कुछ भी नहीं कर सकता है।
क्योंकि मात्म-ध्यान के लिए मन का वश करना तथा इन्द्रियों को उनके विषय से पराछ मुख करना पत्यावश्यक है, परन्तु यह बात मदिरा के सेवन करने वालों में नहीं हो सकती क्योंकि यह मस्तिष्क को मैलाकर वासना तथा इच्छाओं के तृप्त करने की कांक्षा को बढ़ाती है। हम लोगों की इच्छाएं तो हले से ही प्रबल हैं और यह उनको और भी अधिक बढ़ाकर उन्नति के बदले अवनति के मार्ग पर गिरा देती है । मद्यपायी का चित्त अचल रूप से पूज्यदेव पर तथा ध्येय के ध्यान करने पर तथा प्रात्म-विचार पर लगना सर्वथा असंभव है और कहा भी है--