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पमोकार अंप
यावन्न मचमासादि अनस्ताव लोलुपः ।
भुक्ते तस्मिन्सन्मनाः स्यात्क्व जपःक्य च देवताः ।। प्रर्थात् जब तक पुरुष मांस और शराब को नहीं ग्रहण करता है नब तक उसका मन नंचल नहीं होता। जब पुरुष मांस और मदिरा को पी लेता है तब मन तो चंचल हो ही जाता है, फिर देवता का ध्यान और जप उससे कहां बनता है अर्थात नहीं बनता है । अतएव जो मनुष्य अपने को धामिको. लसि के पथ पर लगाकर मोक्षसुख के प्राप्त होने की कामना रखना है, उसे मद्य-मांसादि के परिहारपूर्वक अहिंसा धर्म का प्रतिपादन करने वाले जिन धर्म को स्वीकार कर यात्म-वल्याण करना चाहिए। देखो ! भ्रम से मादक जलमात्र पीने से यादब अति दुःस्वी और पथ-भ्रष्ट हुए, फिर जो जान-बूझकर पीने वाले हैं, उनकी क्या दशा होगी? अतएव सबको मद्यपान करना सर्वथा ही छोड़ देना श्रेयस्कर है। अब मद्यपान व्यसन के सेवन करने से तीब्र दुःख उठाने वाले यादवों का उपाख्यान कहते हैं. जिससे उनके दुःखानुभव से सर्वसाधारण को शिक्षा प्राप्त हो...
इस जंबूद्वीप के मध्य भरत-क्षेत्र में कौशल देश के अंतर्गत एक सौरपुर नामक सुन्दर नगर था। वहां यदुवंशियों में प्रधान महाराजा समुद्रविजय राज्य करते थे। इनके सबसे छोटे भाई थे-बमूदेव । वे पृथ्वी पर प्रसिद्ध थे। जिस समय मथुर का रजा कम वशुद्धत के साथ अपनी बहन देवकी का विवाह कर प्रपनी राजधानी में ले गया था और सुखपूर्वक राज्य कर रहा था, उसी समय किसी कारणवश इसने अपने पिता से रुष्ट होकर उन्हें कारागार में डाल दिया था। इसकी इस मनोति को देखकर कंस के लघभ्राता प्रतिमुक्तक विरक्त होकर मुनि हो गये थे । अतः एक दिन वे मुनि अहार के लिए पाए। उन्हें पाते हुए देखकर कंस की प्रधान रानी जीवंयशा देवकी का मलिन वस्त्र दिखाकर उनके साथ हास्य करके बोली--'देखो, जिसे तुमने बाल्यावस्था से ही छोड़ रखा है, उसी का यह वस्त्र है।'
वस्त्र देखकर मुनि क्रोधित होकर बोले- 'मूर्खे! तू हंसती क्यों है ? तुझे तो रोना चाहिए। इसी के गर्भ से प्रसूत बालक के द्वारा तेरे पिता और स्वामी दोनों की मृत्यु होगी।' यह कहकर मुनिराजपतराय हो जाने के कारण वन में वापिस लौट पाए।
इधर मुनिमुख से यह भवितव्यता सुनकर जीवंयशा बहुत दुःखी हुई। इतने में राजा कंस भोजन के लिए महल में आए और अपनी प्रिया को उदास मन देखकर पूछने लगे--'प्रिये ! आज तुम्हारा मुख-कमल कुम्हलाया हुआ मालूम होता है । क्या तुमको किसी ने दुःख पहुंचाया है ?" तब दुखीचित्त हो जीवंयशा बोली
"हे नाथ अाज मम गेहा, आये अतिमुक्ति मुनेहा ।
मैं हंसि रतिवस्त्र दिखाया, तब इम वच मुनी कहाया।कि हे मूर्ख ! तुझे तो शोक करना चाहिए। हंसती क्यों है ? क्योंकि इसके गर्भ से उत्पन्न होते वाले पुत्र के द्वारा तेरे स्वामी और पिता की मृत्यु होगी। बस यही मेरे दुःखी होने का कारण है।' कांता की इस दुःखमरी कथा को सुनकर कंस भी बड़ा व्याकुल हुमा । सच है, मृत्यु का भय सबसे बड़ा होता है । तब कुछ विचारकर कंस वसुदेव के घर पर गया । वसुदेव ने कंस का प्रागमन देख यथायोग्य पादर सत्कार किया। कंस कपट भाव से वसुदेव की बहुत प्रशंसा कर कहने लगा-'आप सब विद्याओं में मेरे गुरु हैं, इसमें किसी प्रकार का संदेह नहीं, परन्तु मुझे पापसे कुछ मांगना है। यदि आप कृपा करें तो बहुत अच्छा हो।'