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णमोकार ग्रंथ
जिसके श्रवण करने से जीवों की मिथ्यामार्गरूप प्रवृति हो जाय ।।१२॥ ऐसी बारह प्रकार की भाषा है । वे स जीवों में यथायोग पायी जाती हैं उनमें से पंचेन्द्रियों में तो सभी पायी जाती हैं ।
अब दश प्रकार के सत्य का वर्णन करते हैं :--
प्रथम नाम सत्य जैसे कोई मनुष्य नेत्रहीन अथवा प्रसुन्दर नेत्र वाला हो तो उसको कमलनयन अथवा नयनसुख संज्ञावश कहना ।।१। दूसरा रूप सत्य-जैसे चित्रकार अथवा शिल्पकार के द्वारा बनाये गये मनुष्य के प्राकार तथा कुंजराकार को अचेतन व शक्ति रहित होने पर भी पराक्रमी कहना ||२|| तीसरा स्थापना सत्य-व्यवहार के लिये छतो अनछती वस्तु की स्थापना करके तदाकार प्रतिमा मंदिरादिक में विराजमान करके उसमें अपने इष्ट की कल्पना कर लेना ।।३।। चौथा प्रतीतिसत्य श्रीपशमिक आदि पंचभावों को पागम प्रमाण प्रतीत करके व्याख्यान करना। भावार्थ-शास्त्र पर श्रद्धान करके व्याख्यान करना प्रतीनि सत्य है ।।४।। पांचवां स्मरणसत्य भेरी आदि अनेक प्रकार के वादित्र का शब्द होते हये उच्च स्वर का जो वादित्र हो उसका नाम लेना ||५|| छठा संयोजन सत्य जिनमें चेतन अचेतन द्रव्य की रचना का विभाग नहीं है। जैसे युद्ध के समय दोनों सेनाओं में चक्रव्यूह' गरव्यूह, क्रौंचव्यहादि अनेक प्रकार के व्यूह रने जाते हैं। उनमें सेना तो चेतन हैं पर अचेतन द्रव्यों से और उसको चक्रव्यूह कहना, सा चव्रता अचेतन परन्तु चक्र के आकार सेना रची गई अतः उसको चक्रव्यूह कहते हैं । इसको सयोजना सत्य कहते हैं ।।६।। सातवां जनपद सत्य-जनपद नाम देश का है। देश में कई मार्य और कई ग्लेच्छ देश है। उसमें धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष शब्द का व्यवहारो करना ।।७।। प्राठवां उपयोग सत्य-ग्राम नगर की रीति आचार्य पद-साधुपद का उपदेश, जो पुरुष इन बातों में प्रवीण है उनका वचन उन विषयों में प्रमाण करना यथा ग्रामाचार तथा नगराचार के जानने में जो दक्ष हो, उनका बचन प्रमाण राजनीति में राजगुरू का वचन प्रमाण योगरीति में योगीश्वरों के वमन का प्रमाण करके उपदेश देना आदि उपयोग सत्य हैं ।।८।। नवबां भावसत्य जैसा यथार्थज्ञान केवली भगवान के होता है वैसा छदमस्थ के नहीं होता । जो छद्मस्थ हैं वे ज्ञान से मंद हैं ऐसा समझकर केवली के वचन का श्रद्धान करके अपने भावों में मानना अर्थात् केवली का वचन अन्यथा नहीं हो सकता ऐसा कहा गया है इस प्रकार उनके वचन को अपने भाव में प्रतीति करके कहना।।दशवां समय सत्य -जो षट दक्ष्य का तथा सप्त तत्वों का और उनके भेद प्रभेद के स्वरूप का यथार्थ वक्ता (कहने वाला एक जैन धर्म ही है उसमें जो निरूपण किया है सो अक्षर प्रत्यक्षर सत्य है ऐसी जिनवाणी की दृढ प्रतीति करना ॥१०॥ इस प्रकार से दश प्रकार के सत्य का निरूपण किया गया ।७॥
पाठवां प्रात्मप्रवाह पूर्व है । यह छब्बीस करोड़ पद का है। इसमें जीव का कर्तृत्व, भोक्तव, नित्यत्व, अनित्यत्वादि अनन्त स्वभाव का तथा प्रमाण, नय, निक्षेप का निरूपण किया गया है ।।
नवां प्रत्याख्यानपूर्व है। इसमें चौरासी लाख पद हैं। उसमें द्रव्य संवर और भावसंघर का प्ररूपण है । दशवां विद्यानुवाद पूर्व है । वह एक करोड़ दश लाख पद का है। उसमें प्रसेना आदि सातसो छद्र विद्या और रोहिणी प्रादि पांचसौ महाविद्याओं का वर्णन है ।।१०॥ ग्यारहवां कल्याण प्रवाद पूर्व है। इसमें २६ करोड़ पद हैं । उनमें समस्त ज्योतिषगण, अष्टांग निमित्त ज्ञान, तिरसठ शलाका पुरुषों का तथा असुरेन्द्रों का विस्तारपूर्वक वर्णन है ॥१॥ बारहवां प्राणवादक्रियापूर्व है। वह तेरह करोड़ पद का है। उसमें अष्टांग चिकित्सा, श्वासोच्छवास की निश्चलता और पवनाभ्यास का साधन तथा पृथ्वी, आप, तेज, वायु, आकाश इन पांच तत्वों के पवन के परिवार का वर्णन किया गया है ।।१२।।