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________________ णमोकार पंथ ये केश भी मानों बुढ़ापा प्रगट करते हैं । शरीर अनेक प्रकार के रोगों से ग्रसित हो जाता है और परिणाम भी चंचल हो जाते हैं। रोगावस्था में वैसे ही अपने प्राण समान प्रिय पुत्र भी जब निकट नहीं पाते हैं जैसे दुष्ट मित्र नापत्ति के समय पास नहीं पाते हैं, तब अन्य कुटम्नी जनों की क्या बात? सब ही अपने अपने स्वार्थ के सगे हैं निज स्वार्थ के बिना कोई भी किसी का प्रिय नहीं । जैसे नीतिकार ने कहा भी है। शार्दूल छन्द वृक्ष क्षीण फलं त्यजन्ति विहगाः, वग्धं बनान्तं मृगाः । पुष्पं पीत रसं त्यजन्ति मधुपाः, शुष्क सरः सारसाः ॥ निन्न व्यं पुरुषं त्यजन्ति गणिका, भृष्ट नपं मंत्रिणः । सर्वः कार्य वशाज्जनोभिरमते, कः कस्य ने वल्लभः ।। अर्थ-जिस प्रकार विग अर्थात् पक्षी वृक्ष के फलहीन होने पर, मृग हरी दूब बाले वन के भन्म होने पर, मधुप अर्थात् भौरे पुष्प के रस पान कर लेने पर, सारस सरोवर के जल रहित होने पर, गणिका अर्थात् वेश्या पुरुष के द्रव्यहीन होने पर, और मंत्री राजा के राज्य भ्रष्ट होने पर त्याग कर देते हैं उसी प्रकार कुटुम्बी जन भी अपने-अपने कार्य के वशीभूत होने पर उससे प्रेम भरा वार्तालाप करते हैं और उसे अपना वल्लभ अर्थात् प्यारा समझते हैं। अपना प्रयोजन सिद्ध होने पर अथवा आपत्ति आई जानकर तत्समय ही उससे पृथक हो जाते हैं। अतः निष्पक्ष सिद्ध हुअा कि 'सव ही अपने अपने कार्य की सिद्धि के लिए दूसरे की सेवा सुश्रूषा करते हैं, पर के लिए कोई नहीं।' बुढ़ापा आने पर श्रोत्रेन्द्रिय की शक्ति भी न्यून हो जाती है अत: वह अब सुन नहीं पाती है। जठराग्नि भी जरा के मागमन से मन्द हो जाती है अतः परिणाम स्वरूप क्षुधा भी न्यून हो जाती है । क्षुधा के न्यून होने से शरीर की शक्ति घट जाती है अत: चाल अटपटी हो जाती है और नेत्रों की ज्योति कम हो जाती है । मस्स के द्वारा दूसरों को ग्लानि उपजाने वाला कफ झरने लग जाता है और शरीर इतना पराक्रमहीन हो जाता है कि अपने तन के वस्त्रों की भी सुध नहीं रहती तो और बात का क्या कहना? ऐसा दुःखदाई जरा रूप दूसरा दोष भी सत्यार्थ मार्ग के प्रवतंक सकल परमात्मा ईश्वर के नहीं होता है प्रतः ऐसे निर्दोष ईश्वर को मेरा नमस्कार हो । (३) तृषा अर्थात् प्यास दोष-कैसा है यह दोष? इसके होते ही समस्त संसारी जीव व्याकुल हो जाते हैं और जब तक प्यास शमन नहीं हो जाती तब तक निराकुलता नहीं होती है। ऐसा तीसरा तृषा दोष भी सर्वत्र हितोपदेशी सकल परमात्मा ईश्वर के नहीं होता। ऐसे निर्दोष ईश्वर को बारम्बार नमस्कार हो । (४) क्षुधा दोष-कैसा है यह दोष ? इसके वश में होकर ब्रह्मा, विष्णु, महेश प्रादि ने इन में फल भक्षण कर इस क्षुधा रूपी पिशाचिनी को आहार रूप वलि देकर शान्त किया। और कैसी है यह क्षुधा ? जिस समय चौथे काल के आदि में उत्पन्न होने वाले चौदहवें कुलकर नाभिराय के नन्दन धर्मतीर्थ के प्रवर्तक तीर्थंकर आदिनाथ भगवान नीलांजना अप्सरा को नृत्य करते हुए देखकर वैराग्य को प्राप्त हुए और सुरेन्द्रादि द्वारा पालकी चढ़ वन को गए एवं केशलोंच कर षट मास पर्यन्त आहार का निरोध किया। उस समय उनके संग अनेक राजाओं ने राज्य : त्याग कर मोक्ष की इच्छा से तप धारण किया। पर कुछ समय पश्चात् क्षुषा रूपी पिशाचिनी कृत उपसगं को न सह सकने पर, व्याकुल होकर भरत चक्रवर्ती के भय से स्व स्थान को न जाकर वन में प्राप्त वृक्ष प्रादि के फलों से क्षुषा
SR No.090292
Book TitleNamokar Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages427
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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