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णमोकार ग्रंथ
(१) जो नेत्रजनित दर्शन को रोके अर्थात् जिसके उदय से नेत्र रहिन एकेन्द्रिय तथा विकलत्रय अथवा पंचेन्द्रिय शरीर प्राप्त हो तो नेत्रान्ध वा न्यून दृष्टि हो वह चक्षुदर्शनावरण है।
(२) जिसके उदय होने से नेत्र रहित त्वचा, जिल्ला, घाण, यात्र जनित स्पर्श, रस, गन्ध का दर्शन न हो, वह श्रचक्षु दर्शनावरण हैं ।
(३) विषय और इन्द्रियों के योग से सामान्य सत्तामात्र के ज्ञान को दर्शन कहते हैं उसके उदय से द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, की मर्यादा के अवधि ज्ञान से पहले होने वाला सामान्य दर्शन न हो वह अवधि दर्शनावरण है ।
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(४) केवल ज्ञान के साथ होने वाले सामान्य अवलोकन का जो प्रावरण करे वह केवल दर्शनावरण प्रकृति है ।
( ५ ) जो सामान्य रूप से अचेत कर पदार्थों के देखने को रोकती है वह निन्द्रा, दर्शनावरण
प्रकृति है ।
(६) जो अधिक अचेत कर पदार्थों के सामान्य अवलोकन को रोकती है वह निन्द्रा, निन्द्रा दर्शनावरण प्रकृति है ।
(७) जिसके उदय से बार-बार निन्द्रा प्राती है और कुछ चेत सहित श्रम, मद आदि के कारण बैठे-बैठे शरीर में निन्द्रा का आवेश हो व जो पंचेन्द्रियों के व्यापार का निरोध कर पदार्थों के देखने को रोकती है वह प्रचला दर्शनावरण प्रकृति है ।
(८) जो एक निद्रा पूर्ण न हो और दूसरी गहरी निन्द्रा का श्रावेश हो जाये, मुख से राल बहने लग जाय, नेत्र, गात्र चलायमान हो जायें, सुई आदि तीक्ष्ण पदार्थों के लगने से भी चेत न हो उसे प्रचला दर्शनावरण प्रकृति कहते हैं ।
(६) जिस निन्द्रा के आने से मनुष्य चैतन्य सा होकर अनेक रौद्र कर्म कर लेता है और अचेत हो जाता है प्रथवा सचेत होने पर उसे कुछ भी स्मरण नहीं रहता कि मैंने अचेत अवस्था में क्या-क्या काम कर डाले तब उसको स्त्यानगृद्धि दर्शनावरण कर्म प्रकृति कहते हैं ।
पदार्थों के समान्य अवलोकन को रोकने वाले दर्शनावरण कर्म के ऐसे नी भेद हैं ।
तीसरी मूल प्रकृति वेदनीय कर्म के दो भेद हैं । - ( १ ) साता वेदनीय (२) असाता वेदनीय । जिसके उदय से जीव की इच्छा के अनुकूल शारीरिक, मानसिक सुख के कारण पदार्थों की प्राप्ति हो उसे सातावेदनीय कहते हैं और जिसके उदय से दुःख दायक जीव की इच्छा के प्रतिकूल अन्य पदार्थों की प्राप्ति हो उसे असातावेदनीय कहते हैं ।
atrt मूल प्रकृति मोहनीय है। उसके दो भेद हैं - ( १ ) दर्शन मोहनीय और (२) चरित्र
मोहनीय |
इनमें से दर्शन मोहनीय के सम्यक्त्व, मिध्यात्व और सम्यक् मिथ्यात्व अर्थात् मिश्र मोहनीय ये तीन और चरित्र मोहनीय के श्रकषाय मोहनीय और कपाय मोहनीय ये दो भेद हैं ।
कषाय मोहनीय हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेद ऐसे नौ प्रकार का है और कषाय मोहनीय अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ, प्रप्रत्याख्यानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ और संज्वलनानुबन्धी शोध, मान, माया, लोभ ऐसे सोलह प्रकार का है। इसके उदय से सर्वज्ञ भाषित मार्ग में अर्थात् जीवादि तत्वों में जिसके श्रद्धान के कारण देव शास्त्र, गुरु में पराङमुखता तथा अरुचि हो और मतत्वों में श्रद्धान हो उसे मिथ्यात्व कहते हैं । उसके