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________________ गमौकार ग्रंथ १०७ उदय से सम्यक्त्व नाममात्र को भी नहीं होता है। जब शुभ परिणाम के उदय से मिथ्यात्व प्रकृति का अनुभाग न्यून हो जाता है तब सम्यग् मिथ्यात्व के उदय से कुछ-कुछ भाव नम्पग् श्रद्धान रूप अन्तम हुन को होते हैं अर्थात् जिसको न तो सम्यकत्व रूप कह सकते हैं 1 और न मिथ्यात्व रूप, उसे सम्यक् मिथ्यात्व कहते हैं और जिसके उदय से सम्यकत्व का मूलघात तो न हो परन्तु चल, मल, प्रगाढ़ इन तीनों दोषों का सहभाव रहे उसे सम्यकत्व प्रकृति कहते हैं । इन मिथ्यात्व प्रकृतियों के उपशम से उपशभ सम्यकत्व, क्षयोपशम से क्षायोपशामिक सम्यकत्व और क्षय से क्षायिक सम्यकत्व होता है। चारित्र मोहनीय की पच्चीस प्रकृति के आचरण कहते हैं। चारित्र विगाड़ने से चारित्र मोहनीय अथवा कषायों को प्रगट करने से कषाय मोहनीय कहलाती हैं। इनमें से चार अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ मिथ्यात्व के साथ मिलकर सम्यक श्रद्धान को बिगाड़ते हैं। इनके उदय से जीव, राज विरुद्ध, लोक विरुद्ध, धर्म विरुद्ध, अन्याय रूप किया तथा सप्त व्यसन प्रादि पापों को निरर्गल सेवन करता है। इनका उदाहरण पाषाण रेखावत् क्रोध, पाषाण स्तंभवत मान, बाँस की जड़वत् माया, धुंधची के वर्णवत लोभ होता है। अप्रत्याख्यानावरण कोष, मान, माया, लोभ श्रावक के अणुव्रतों को नहीं होने देते और न्यायपूर्वक विषय में अति लोलुपता कराते हैं। इनका उदाहरण--हल रेखावत् क्रोध, अस्थिस्तंभवत् मान, मोटे के सींगवत् माया और मजीठ के रंगवत् लोभ हैं। प्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभ इनके उदय से जीव महाव त धारण नहीं कर सकता है।क्षयोपशम के अनुसार देशवत धारण कर सकता है। इनका उदाहरण __ धूल तथा बालू रेखावत् क्रोध, काष्ठ स्तम्भवत् नान, हिरण शृंगवत् माया, कुसुम वर्णवत् लोभ है। संज्वलन क्रोध, मान, माया, लोभ ये यथाख्यात चारित्र के घातक है अर्थात् इनके उदय से चारित्र में कुछ शिथिल भाव रहते हैं । इनके उदाहरण जल रेखावत् क्रोध, बैत के स्वत नवत् मान, गौ श्रृंगवत् माया और हल्दी के रंगवत् लोभ कहा है । ऐसे ये सोलह कषाय प्रवल हैं और हास्यादिक नव कषाय मंद हैं पर ये भी शुद्ध चारित्र में मल लगाने वाले हैं। . (१) जिसके उदय से हास्यरूप भाव हो उसे हास्य प्रकृति कहते हैं। (२) जिसके उदय से इष्ट भोगोपभोग वस्तु का इष्टजनों में प्रेमरूप भाव हो वह रति है। (३) जिसके उदय से इष्ट पदार्थों के वियोग में अथवा अनिष्ट पदार्थों के संयोग में प्रात्त रूप भाव हो वह परति है। (४) जिसके उदय से चित्त में खेद व उग उत्पन्न हो वह शोक है। (५) जिसके उदय से परिग्रह, प्राणों के नाश का व रोग का, चोर का अकस्मात् अग्नि, जल, दुष्ट जंतु आदि का डर हो वह भय है। (६) जिसके उदय से ग्लानिरूप भाव हो वह जुगुप्सा है। (७) जिसके उदय से स्त्री से रमने की इच्छा हो और स्वभाव निष्कपट हो वह पुरुषवेद है। (८) जिसके उदय से पुरुष से रमने की इच्छा हो वह स्त्री वेद है। (९) जिसके उदय से स्त्री पुरुष दोनों से रमण करने के भाव हो वह नपुंसक वेद है।
SR No.090292
Book TitleNamokar Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages427
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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