________________
३९८
भमोकार पंच
प्रथ ग्रन्थ कर्ता प्रशस्ति :गत घाति चतुष्टय गरिम, नव केवल लब्ध्येश । ज्ञायक लोकालोक के नमहं सकल परमेश ॥ अष्ट कर्म गत शर्म मय, नत निरंजन नित्य । ज्ञानादि वसुगुण गरिम, नमहुँ सिद्ध कृतकृत्य ।। व्रत तप बीर्याचारपन, दरशन ज्ञान प्रधान । धरें धरावें मौढ्यगण, नम सूरि तिन जान ।। रत्नत्रय मणिजुत सतत, वृष उपदेशन लीन । सयतिवर उवज्झाय है, नमहु चरण तिन चीन ॥ दरश बोध चारित रतन, तीनों शिवपुर पंथ । साधे ठाइ समूल गुण, नमहं सकल निर्ग्रन्थ ।। द्वादशांग वाणी विमल, उद्या सदन नि: नहुँ पण गुग बोलिए, विद्या दान अशेष ।। या विधि पच परमेष्ठी अरु, वाणी श्री जिनराय । नमि के पद युग पद्म को, लिखू प्रशस्ति बनाय ।। इस ही भारत क्षेत्र में, अन्तर्गत कुरु देश । इन्द्रप्रस्थ राजत नगर, शोभा सहित विशेष ।। पंचम जार्ज सम्राट मणि, सब राजन परधार । परत तिस शासन तहां, प्रजा सुखद कल्याण ॥ विविध जाति धर्मो सुजन, निवसें तहाँ समुदाय । जिन धर्मी राजें बहुत, जन धन साता पाय ॥ तिष्ठे तहाँ अन्वय प्रवर, खंडलवाल विख्यान । पुनीत वैनाडा गोत्र मणि, धर्म बुद्धि निष्णात ।। मम पितू कन्हैयालाल जी, किशन चंद के नंद । तिन पद युग को दास मम, कहावत लक्ष्मीचंद ।। ज्ञानावरण क्षयोपशम, पूरव भव संस्कार । भयो अटल विश्वास मम, जिनवाणी पर सार ।। तिस हेतु वय अल्प से, पागम श्री जिन चंद । पृच्छ अलापन गुणान का, करत रहत सानंद ।। एक दिवस मम चित्त में, उपजो यहै हुलास । पढ़ो सुनो तिहिं संचिये, यथाशास्त्र क्रम भाष ।। पंच परमेष्ठि नमन करि, सरस्वती उर धार । करन संग्रह प्रारम्भ कियो, यथा बुद्धि अनुसार ॥ जो निज धी तें जानियो, सुनो सुवुद्धिन पास । तिस एकत्रित करि कियो प्रागम रूप प्रकाश ।। या के संग्रह करन में, मम मितु निर्भयराम । तिन सहाय बहु हम करी, सम्मति दे सुख धाम॥ मम संग्रह अभिमानवश, कियो न यश विस्तार । पर हित हेतू तया, स्वज्ञ बढ़न हितकार ॥ याहि पठन-पाठन थकी, स्वल्प बुद्धि नर नार । न्यूनाधिक तातें कछु, होवहिगो उपकार ।। विज्ञन से मम प्रार्थना, पूर्बक भाव विनीत । हंस प्रकृति से शुध करो, क्रोध भाव को जीत ॥ नाहीं में व्याकरण विद्, नहीं चरित्र पुरान । नहीं काव्य तत्वार्थ विद्, नहीं न्याय कछु ज्ञान ।। पन्त संभवतः या मध्य में, होंगी त्रुटी अनेक । किन्तु न्यूनाधिक तथा, लँगो स्थल नैक ।। वीर अब्द चौबीस शत, छयालिस ऊपर जान । चैत्र शुक्ल एकादशी, भयो ग्रन्थ अवसान ॥
॥ इति णमोकार ग्रन्थ समाप्तः ॥