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णमोकार ग्रंथ
कौशल देश के अन्तर्गत अयोध्या नाम की नगरी में राजा दशरथ राज्य करते थे । इनका जन्म इक्ष्वाकु बंश में हुआ था। ये नीतिज्ञ और बुद्धिमान थे इनकी धार रानियां थी। उनके नाम क्रमशः कौशल्या, सुमित्रा, केकई तथा पराजिता थे। चारों के क्रमशः रामचन्द्र, लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न ये चार पुत्र हुए। अपने सुशील पुत्रों के साथ महाराजा दशरथ मानन्द भोगते हुए सुख पूर्वक अपनी प्रजा का पालन करते थे। बड़े-बड़े राजा महाराजा इनकी प्राशा के अधीन थे।
एक दिन उन्होंने दर्पण में अपने मुख मण्डल की शोभा का निरीक्षण करते हुए कानों के पास एक हवेत केश देखा । इसके देखने मात्र से इनके हृदय में वैराग्य का अंकुर उत्पन्न हो गया वे विचारने लगे काल के घर का दूत अब प्रा पहुंचा इसलिए इन विषयों से इन्द्रियों को खींचकर अपने वश करू । इन इन्द्रियजन्य क्षणिक सुखों को मैंने बहुत दिन भोगा है ! त स अंनिशावामा में भाग उति है कि राज्यभार को रामचन्द्र को सौंपकर अविनश्वर मोक्ष महल के देने वाली जैनेन्द्री दीक्षा स्वीकार करू । इसके पश्चात अपने विचारानुसार राजा दशरथ ने अपने सभी कुटुम्बी जनों को बुलाकर उनके समक्ष रामचन्द्र को राज्यभार देना चाहा । जब यह वत्तांत 'रानी केकई को मालम हा तो वह उसी समय राजा के पास प्राई और अश्रुपात करती हुई बोली-"महाराज ! मुझ दासी को प्रकेली छोड़कर प्राप कहाँ जाते हैं ? मैं भी आप के साथ चलूंगी। प्रापके न होते हुए मुझ पुत्र और राज्य से क्या प्रयोजन ? कुलवती बिदुपी स्त्रियों को प्रापति के साथ वन में भी क्यों न रहना पड़े उनके लिए वही सुख स्थल
और महतों से भी बढ़कर सुखदाई है ।" दशरथ बोले -"प्रिये ! तुम मेरे साथ वन में चलकर क्या करोगी? तुम यहां रहकर अपने पुत्र को सुखी देखते हुए मानन्दपूर्वक अपने दिन बितामो।"
यह सुनकर भरत बोल उठा-"पिताजी ! मुझे घर से कुछ प्रयोजन नहीं है। पापके साप ही साप में भी दीक्षा धारण करूंगा।"
भरत का भी दीक्षा लेना जानकर केकई बोल उठी-"प्राणनाथ ! जो आपने मुझे स्वयंवर के समय वचन दिया या वह यदि प्रापको स्मरण हो तो मुझे देकर मेरी प्राशा पूर्ण कीजिए।"
उत्सर में दशरथ ने कहा- "प्रिये ! यह न समझो कि मैं अपने वचन को भूल गया हूं। मुझे भली प्रकार स्मरण है तुम्हें जो अभीष्ट हो वही मांगो मैं तुम्हारी इच्छा पूरी कहंगा क्योंकि सब ऋणों में बचन ऋण बड़ा भारी है।"
यह सुन केकई नीचा मुखकर बोली-"प्राणनाथ यदि पापका आग्रह है तो सुनिये ! खेद की बात यह है । इधर तो ग्राप चले उधर पुत्र भी दीक्षा लेना चाहता है। ऐसी अवस्था में पति पुन रहित होकर मैं प्रभागिनी ही अकेली रहकर क्या करूगी ? प्रतएव यदि प्राप उचित समझते है तो भरत को अपना राज्य और राम को वनवास दीजिए।"
कैकई की यह बुरी भावना जानकर राजा दशरथ चिता के मारे चित्रलिखित से हो गये । मुख कमल कान्ति विहीन हो गया । वे विचारने लगे कि यदि इस समय भरत को राज्य नहीं देता तो मेरे वचनों को कलंक लगता है और भरत को राज्य दे भी दिया जाय तो कुछ नहीं परन्तु मुझसे कैसे कहा जा सकेगा कि रामचन्द्र तुम वनवास सेवन करो, अब यह राज्य भरत को दिया जाएगा। वे इस चिता के मारे मन ही मन बड़े दुखी हो रहे थे कि इतने में ही श्री रामचन्द्र प्रा पहुंचे और पिता जी के मुख को निष्प्रभ देखकर मंत्रियों से पूछते लगे-"पिताजी, आज कुछ चिन्तायुक्त क्यों मालूम पड़ते हैं ?" "
उत्तर में मंत्रियों ने चितित होने का समस्त वृत्तात कह सुनाया। सुनते ही रामचन्द्र बड़ी धीरता के साथ बोले-"क्या यही छोटी-सी चिंता महाराज के दुःख का कारण है? इस लघु वार्ता के