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णमोकार ग्रंप
ऐसा जानकर बुद्धिमान पुरुषों को उचित है कि इस दारुण दुःखदाई पाप कर्म का परित्याग कर पात्मा को पूर्ण शांति देने वाले पवित्र जिन शासन की शरण ग्रहण करें।
11 इति चोरी व्यसन वर्णन समाप्तः ।।
॥प्रय परस्त्री व्यसन प्रारम्भः ॥ देव, गुरु, धर्म और पंचों की साक्षीपूर्वक पणिग्रहण की हुई स्त्री के प्रतिरिक्त अन्य स्त्रियों के साथ समागम करने में आसक्त हो जाना परस्त्री व्यसन कहलाता है । लज्जा, मर्यादा, उज्वल सुयश, सत्यता, प्राचौर्य प्रादि उत्तम गुण नष्ट होकर राजदंड, जातिवंड जनित धन हानि और शारीकि कष्ट प्राप्त हो निदा एवं परलोक में नरक आदि कुगतियों के पात्र बनते हैं। कहा भी है
कुगति बहन गुण गहन, बहन दावानल सी है। सुजना इंद्र धम घटा, वेहश करमणई है। षम सर सोषण धूप परम दिन साँझ समानी ।
विपत्ति भुजंग निवास, मोबई व बसानी। इहि विधि अनेकौगुण भरी, प्राण हरन फासी प्रवस ।
मत कर कुमित्र यह जानि जिय, परवमिता सौ प्रीतिपल । इस पापाचार से होने वाली हानियों का विचार कर बुद्धिमानों को उचित है कि इसका शुद्ध चित्त से सर्वथा परिहार करें। जो परस्त्री संसर्ग का परित्याग कर देते हैं वे संसार में निर्भय हो जाते हैं। उनकी उज्जवल कीति सब दिशामों में विस्तृत हो जाती है। देखो इसी व्यसन की इच्छा तथा उपाय करने मात्र से विखण्ड का स्वामी रावण मरकर नरक में गया। उसके कुल में कलंक लगा, लोक में एब तक उसका अपयश चला पाता है। अब यहाँ पर उसी के उपख्यान का वर्णन किया जाता है जिससे उसके तज्जनित दुःखों से परिचित होने से सर्वसाधारण इस प्रन्याय रूप पसत्यकर्म का परिहार कर सत्कर्म में प्रवृत्ति करेंगे
राक्षस द्वीप के अन्तर्गत लंका नाम की नगरी में राक्षस वंशीय त्रिखंडेश रावण प्रपनी विदुषि प्रधान महारानी मंदोदरी सहित प्रजा का पालन करता था। रावण के कुम्भकर्ण मौर विभीषण नाम के दो भाई थे और इंद्रजीत तथा मेघनाथ आदि बहुत से उसके पुत्र पे। रावण बड़ा प्रतापी, भाग्यशाली और महान पराक्रमी था। सब राजा-महाराजा उसका पादर करते थे। रावण का बहनोई सरदूषण था उसकी राजधानी अलंकारपुर थी । वह भी रावण के समान त्रिखंडाधिपति और महाबली था। राक्षसदेशी तथा बानरबंशी सब इसके प्राशाकारी थे।
एक समय कैलाश पर्वत पर जब केवली भगवान की गंधकुटी में विद्याधर प्रादिधर्मोपदेशामृत का पान करने पाये थे । उस समय सब धर्मोपदेश श्रवण कर अपनी अपनी शक्ति के अनुसार प्रत नियम मादि ग्रहण किये तब रावण ने भी अपनी सुन्दरता के घमण्ड में माकर यह प्रतिक्षा ग्रहण की कि जब तक मुझे परस्त्री न चाहेगी तब तक मैं बलात्कार से उसके साथ समागम नहीं करूंगा।
तदनन्तर रावण व्रत धारण कर अपने घर चला गया और फिर सुखपूर्वक प्रजा का पालन करने लगा। प्रब रावण ने जो दूसरे की स्त्री हरी थी, वह कौन थी किसकी स्त्री पी मौर कैसे हरी थी, ऐसे प्रश्न उपस्थित होने पर इस कथा से सम्बन्ध रखने वाले रामचन्द्र की कथा इस प्रकार है