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________________ णमोकार च दासी चली आई | जाकर अपनी स्वामिनी को ज्यों का त्यों सारा वृतांत कह सुनाया। रानी ने दूसरी बार पुरोहित के गले का हार जीत लिया। उसे दासी को देकर फिर ब्राह्मणी के पास भेजा । दासी फिर पुरोहित की स्त्री के पास गई और जाकर कहने लगी- "देख तेरे स्वामी ने अबकी बार हार की निशानी देकर मुझसे कहलवाया है कि मैं बड़े संकट में फस गया हूं यदि मुझको जीता देखना चाहती हो तो हार को देखते हो रत्नों को दे देना ।" ब्राह्मणी ने अपने पति को संकट में आया हुआ जानकर शीघ्रता से घर में से उन्हीं चार रत्नों को हार के लाने वाले को दे दिया। महारानी ने उन रत्नों को लेकर खेलना बन्द कर दिया औरत की यो मुद्रा तथा गने का हार जीता था वह उसको वापिस देकर कहा - "पुरोहित जी अब समय बहुत हो गया है प्रतएव खेलना बन्द कीजिए ।" महारानी के कहने से उसी समय हो खेल बन्द कर दिया गया। तत्पश्चात रानी जयवती उन रत्नों को अपने स्वामी को गुप्त रीति से देकर वहाँ से विदा हुई। महारानी के चले जाने के अन्तर राजा ने शिवभूति से पूछा - "पुरोहित जी चोरी करने वालों के लिए नीति शास्त्र में क्या दण्ड विधान है ? २१६ सुनते ही सत्यघोष कहने लगा- "महाराज ! या तो उसे सूली पर चढ़वाना चाहिए या तीक्ष्ण शास्त्रों द्वारा उसके खण्ड-खण्ड करा देना चाहिए।" इस पर कुछ न कहकर महाराज ने वे चारों रत्न पुरोहित जी के सामने रख दिए और कहा कि- "पापी, द्विज कुलकलंक, कह तो सही, अब इस पाप का तुझे क्या दण्ड देना चाहिए ? तूने बेचारे भोले पुरुषों को इस तरह धोखा देकर ठगा है " पुरोहित जी रत्नों को देखते ही चित्रलेख के समान निश्चल हो गये। मुख की कांति जाती रही। फिर महाराज बोले- "पुरोहित जी ! आपको सूली का सुख तो अभी दिलवा देता परन्तु मापने ब्राह्मण कुल में जन्म लिया है इसलिए इससे प्रापकी रक्षा करके कहा जाता है कि मेरे यहाँ बार मल्ल हैं। तुम या तो उनमें से प्रत्येक के हाथ के चार-चार मुक्कों की मार या एक थाल गोबर की भक्षण करो यदि ये दोनों प्रस्वीकृत हों तो अपना सर्वस्व मेरे सुपुर्द कर देश छोड़कर चले जाओ । निदान उसने अपने लिए दण्ड की योजना सुनकर चार मल्लों द्वारा मुक्कियां सहना स्वीकार किया । राजाशा होने पर मल्लों ने घूंसे लगाने आरम्भ किये। घूंसों की मार पूरी भी नहीं हुई थी कि सत्यघोष के प्राण निकल गये । पाप का उचित दंड मिल गया। पुरोहित जी प्रातध्यान से मरकर सूर्य की गति में गये । तदनन्तर राजा ने धनपाल को बुलाया । उसकी प्रशंसा कर उसके रत्न और पारितोषिक देकर धनपाल को उसके घर पहुंचा दिया। बुद्धिमानों ! देखो, चोरी कितनी बुरी भावत है। चोरी के करने से पाप का बन्ध होता है । सब गुण नष्ट हो जाते हैं। धन का नाश हो जाता है । कुल को कलंक लगता है शारीरिक, मानसिक अनेक कष्ट उठाने पड़ते हैं। राजदंड, जातिदंड के दुःख भोग निंदा और कुगति का पात्र बनना पड़ता है। किसी कवि ने ठीक कहा है "चिता तर्जन चोर रहत चौंकाय सारे पोटं घनी विलोक लोक निर्वयि मान मरे । प्रजापाल करि कोप तोष सों रोप उड़ायें, ऐसे महामुख पेरिव अंत नोची गति पावे । प्रति विपत मूल चोरी विसन, प्रकट त्रास भावे नदर । वित्त पर प्रदत्त अंगार, गिन नीतिनिपुन परसे न कर ॥
SR No.090292
Book TitleNamokar Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages427
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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