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________________ णमोकार पंच २१५. उसकी कुछ सुनाई नहीं हुई। वह अपने निर्वाह का कुछ उपाय न देखकर जिनमंदिर में जाकर रहने लगा जो कोई श्रावक उसे बुलाकर ले जाता उन्हीं के यहाँ जाकर वह भोजन कर माता और जिनमंन्दिर में ही रहा करता था । अन्त में उसने एक युक्ति की । जब मर्द्धरात्रि होती, तब वह राजा के महल के नीचे एक वृक्ष पर बैठकर उच्च स्वर से पुकारता - "महाराज ! आप धर्म प्रधर्म के जानने वाले हैं। प्राप को मेरो प्रार्थना पर ध्यान देना चाहिए कि जब मैं समुद्र यात्रा को गया था तब पाँच करोड़ लागत के रत्न आपके पुरोहित के पास रख गया था। जब मैं समुद्र यात्रा से लौट कर भाने लगा, तो देव दुर्विपाक से मेरा जहाज फट गया और मैं बड़ी कठिनाई से निकला । अब मैं अपने रत्न वापिस मांगता हूं तो मुझे देता नहीं है उल्टा मुझे विक्षिप्त बताकर प्रसिद्ध कर दिया। आप मुझे मेरे रत्न दिलवा दीजिए।" इसी तरह प्रतिदिन वह चिल्लाने लगा । ऐसा करते करते उमे बहुत दिन व्यतीत हो गये । एक दिन रानी जयवती ने महाराज ने कहा- "प्राणनाथ ! यह मनुष्य कौन है जो बहुत दिनों से रत्नों के लिए पुकारता है ? " तब राजा ने कहा- "यह मनुष्य विक्षिप्त हो गया है ।" महारानी बोली -नाथ प्राप इसे विक्षिप्त बताते हैं यह नहीं समझ में भाता कि इसमें विक्षिप्त होने की बात क्या है ? विक्षित मनुष्य एक ही बात को बहुत दिनों पर्यंत नहीं कह सकता वरन् प्रतेक प्रकार के वचन कहता । सुझ मालुम होता है कि इस सहाय के न्याय को और आपका लक्ष्य ही नहीं जाता ।" उत्तर में महाराज बोले- "यदि तुम इसे निर्दोष समझती हो तो तुम ही इसका न्याय करो । महाराज के वचनों को सुनकर महारानी जयवती ने इसकी परीक्षा का भार अपने ऊपर ले लेना स्वीकार किया और कहा - "महाराज ! आपको इतनी देर यहाँ हो ठहरना होगा ।" राजा ने कहा - "अस्तु स्वीकार है । " महारानी ने उनसे चौसर खेलना आरम्भ कर दिया । इतने में पुरोहित महाराज भी वहां पहुंच गये और भाशीर्वाद देकर तिथिपत्र पढ़ने लगे। जब वे अपना पाठ पूरा कर चुके तो महारानी ने उनसे भी खेलने के लिए कहा। पुरोहित जी बोले- 'महारानी ! मैं क्षुद्र पुरुष आपके साथ कैसे खेल सकता हूं ? " महारानी बोली- ---"आपने यह अच्छा कारण बतलाया। क्या पिता पुत्री के साथ नहीं खेल सकता महाराज ने भी महारानी के वचनों का समर्थन कर कह दिया- "पुरोहित जी खेलिए । इसमें क्या दोष है ?" महाराज के आग्रह से बेचारे पुरोहित को खेलना पड़ा। खेलते-खेलते महारानी ने अपनी चतुरता से एक चाल चली । वह पुरोहित जी से बोली- 'महाराज ! अब ऐसा कीजिए कि प्राप मुझे खेल में हरा दोगे तो मैं अपनी मुद्रिका आपको दे दूंगी और यदि मैंने आपको हरा दिया तो आप अपनी मुद्रिका दे देना । पुरोहित जी ने लोभवश रानी के इस बचन को स्वीकार कर लिया । अव दोनों वास्तविक हार जीत से खेलने लगे। महारानी ने उनके साथ में दोसार खेलकर मुद्रिका जीत ली और अपनी दासी को गुप्त रूप से मुद्रिका देकर धनपाल वाले रत्नों के लिने के लिए उनके घर पर भेजा दासी ने पुरोहित के घर जाकर वह मुद्रिका दिखाकर कहा--"देखो पुरोहित जी ने यह अपनी मुद्रिका की निशानी देकर कहलवाया है कि इसके देखते ही धनपाल के जो चार रत्न रखे हुए है वे दे देना ।" वह बिगढ़ कर बोली - "जा चली जा यहां से जाकर कह देना मेरे पास कोई रन नहीं है ।
SR No.090292
Book TitleNamokar Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages427
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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