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________________ २३ णमोकार प्रेष प्रलंकारपुर नामक नगर के राजा का नाम खरदूषण था और उसकी स्त्री का नाम सूर्पनखा था । वह रावण की बहन थी। इसके बाम्बूक नाम का एक पुत्र या । यही शम्बूक उस गहन बोस के बीहड़ में चन्द्रहास खड्ग के सिद्ध करने के लिए बारह वर्ष से मन्त्र साधन कर रहा था। उसको गुरू ने मन्त्र साधन करने की विधि के साथ-साथ यह भी बतला दिया था कि बारह वर्ष के उपरान्त जव खड्ग प्रादुर्भूत हो तब सात दिन पीछे जिनेन्द्र भगवान का पूजन करने के पश्चात उसे ग्रहण करना । खड्ग को पाए पूरे सात दिन होने को पाए थे कि वैवयोग से लक्ष्मण उधर प्रा निकले मौर उनके द्वारा ध्वस हो गया । लक्ष्मण के खड्ग ले जाने के कुछ समय के अनन्तर उसकी माता सूर्पनखा भी भोजन लेकर मा पहुंची और वन को बिलकुल साफ देखकर मन में विचारने लगी कि मालूम होता है कि पुत्र में खङ्ग की शक्ति की परीक्षा की है। पुत्र को मन्त्र सिद्धि हुई जानकर वह बहुत प्रसन्न हुई परन्तु जब नीचे पाकर उसको खण्ड-खण्ड होते हुए देखा तो उसे खुशी के बदले महान दुख हुमा । परन्तु फिर भी भ्रम से यह समझकर कि कदाचित पुत्र ने यह अपने मन्त्र की प्राया फैलाई हो शीघ्रता से पुत्र के पास प्राकर कहने लगी-प्यारे पुत्र उठो, उठो । क्या तुम्हें मुझसे ही मायाचार उचित था । तू मेरे दुल की भोर तो जरा देख कि पाज बारह वर्ष हो गये मैंने अपने हृदय के टुकड़े को किस दुःखी दशा में छोड़ रखा है। हे पुत्र प्रब अपनी माया को छोड़कर मुझ से वार्तालाप कर। बहुत समय तक सूर्पनखा इसी प्रकार प्रार्थना करती रही परन्तु पुत्र उसी अवस्था में पड़ा रहा । प्रन्स में उसने पुत्र को मरा हुमा समझा । वह निराश होकर पुत्र के विषम वियोग से प्रषीरता पूर्वक साश्रुपात रुदन करने लगी, छाती कूटने लगी। उसे प्रपार दुख हुआ। बहुत समय तक चोर दुःख से प्रधीर होकर वह विलाप करती रही। पन्त में जब शोक का प्रावेग कुछ कम हुमा तो उसने विचारा कि अब रोने से ही क्या होगा? अब तो उस दुरात्मा की खोज लगाऊँ जिसने मेरे जीवन पवलम्ब निरपराधी पुत्र का प्राणहरण किया है। उस पापी को भी इसी दशा में पहुंचा जिससे मुझे कुछ संतोष हो। ऐसा विचार कर वह वहां से चलकर देखती-देखती वहीं प्रा निकली जहां धीर वीर लक्ष्मण ठहरे हुए थे। उनके हाथ में खड्ग को देखकर वह यह तो जान गयी कि मेरे पुत्र का प्राणघातक निश्चय पूर्वक यही है पर साथ ही लक्ष्मण की अनुपम स्वर्गीय सुन्दरता देखकर उसका हृदय उन पर मम्ध हो गया और काम ने भी इसके हृदय में निवास जमाना प्रारम्भ किया पत: कामातुर होकर पुत्र के शोक का विस्मरण कर वह विचारने लगी पुत्र तो प्रब मर ही दुका पुनः मब वीवित नहीं हो सकता । अतः इस मपूर्व सुन्दर पुरुष से विरोध करने तथा प्राणहरण कराने का यस्ल करने से क्या लामो सारतो इसमें है कि यह किसी प्रकार से मेरा स्वामी हो जाय तो फिर कहना ही क्या है? तब ही मेरा जीवन सुखरूप हो सकता है। ऐसा विचार कर उसने उसी समय अपने मायावल से अपमे को सोलह वर्षीय नवयौवन सम्पन्न कुमारी रूप में बदल लिया । सूर्पनखा बालिका बनकर लक्ष्मण के निकट गयी पौर रोने लगी। लक्ष्मण ने उसे रोती हुई देखकर पूछा-हे पालिके ! तू कौन है ? किसलिए इस मुनसान बन में पाई फोर किसलिए रोती है? मालिका ने उत्तर में कहा-4 छोटी अवस्था से अपने मामा के मही रहती थी। मेरा पालमा पोषण मामाजी ने ही किया है । जब मैं बड़ी हुई और मुझको ज्ञात हुमा कि मामा मुझको दुरी नजर से देखने लगे हैं तब यह वृतान्त मैंने गुप्त रीति से पिताजी के कानों तक पहुंचा दिया । पिताजी मुझको उसी समय ही सेनेमा गये। उनके साप अपने घर को जा रही थी कि मार्ग में उनको यहाँ विधाम करना पड़ा। कुछ रामि शेष रहने पर हम उठकर चले परन्तु सेव है कि पलते-चलते पिताजी तो माणे:
SR No.090292
Book TitleNamokar Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages427
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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