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________________ णमोकार प्रम देवों के द्वारा परिपूज्य पर्यकासन जिन चैत्य (प्रतिमा) विराजमान हैं इसी कारण इनको चैत्यवृक्ष कहते हैं। इन प्रत्येक प्रतिमाओं के अनुभाग में एक-एक मानस्तम्भ स्थित है और उन मानस्तम्भों के ऊपर प्रत्येक दिशा में सात-सात जिन बिम्ब विराजमान हैं। ___ अब आगे भवनवासौ इन्द्रों के भवनों की संख्या कहते हैं-पहले एक-एक क ल में जो दो-दो इन्द्र कहे थे उन में जिनका नाम प्रथम है वे दक्षिणेन्द्र और जिनका नाम पीछे है वे उत्तरेन्द्र जानने चाहिए। दक्षिण दिशस्य भवनों में रहने वाले इन्द्रों को दक्षिणेन्द्र और उत्तर दिशस्थ भवनों में रहने वालों इन्द्रों को उत्तरेन्द्र कहते हैं। वहां असुर कुमार कुल के दक्षिणेन्द्र के चौतीस लाख और उत्तरेन्द्र के तीस लाख भवन हैं। नागकुमार कुल के दक्षिण के चवालीस लाख और उत्तरेन्द्र के चालीस लाख भवन है। सुपर्णकुमार कुल के दक्षिण के अड़तालीस लाख और उत्तरेन्द्र के चौतीस लाख भवन हैं। दीप कुमार उदधि कुमार, विद्युत कुमार, स्तनित कुमार, दिक्कुमार और अग्नि कुमार इन छह कुलों के प्रत्येक दक्षिणेन्द्र के चालीस-चालीस लाख और उत्तरेन्द्र के छत्तीस-छत्तीस लाख भवन और हैं बात कुमार कुल के दक्षिणेन्द्र के पांच लाख और उत्तरेन्द्र के छयालीस लाख भवन हैं। इस प्रकार दसों कुल के इन्द्रों के समस्त भवन सात करोड़ बहत्तर लाख हैं। इन सर्व भवनों में एक एक चैत्यालय है इस कारण इतने ही चैत्यालय हुए। उन चैत्यालयस्थ जिनविम्दों को त्रिकरणशुद्धिपूर्वक मेरा नमस्कार हो । वे भवन नाना प्रकार के उत्तमौसम पुष्पों की गन्ध से सुगन्धित रत्नमय भूमि व भित्तिका संयुक्त सदैव प्रकाशमान भूमिगृह तिहखाना) की उपमा को धारण करने वाले जघन्य संख्यात कोटि योजन और उत्कृष्ट प्रसंख्यात कोटि योजन परिमित विस्तार आयाम वाले प्रति चौकोर हैं। तीन सौ योजन बाहुल्य प्रति ऊंचाई वाले उन प्रत्येक भवनों के मध्य में सौ-सौ योजन ऊँचा एक पर्वत होता है इसी पर भगवान का चैत्यालय होता है। आगे इन भवनों के स्थान को कहते हैं कि ये कहाँ पर स्थित हैं.-रत्नप्रभा पृथ्वी एक लाख अस्सी हजार योजन मोटी है। उसके तीन विभाग है-स्वरभाग, पंकभाग और अबहुलभाग । इनमें से सोलह हजार योजन मोटा पतला खरभाग है। उसमें चित्रा, बच्चा, वैडूर्य आदि एक एक हजार योजन की मोटी सोलह पृथ्वियाँ हैं । इनमें से एक. एक हजार योजन मोटी एक नीचे की और एक ऊपर की ऐसी दो पृवियों को छोड़कर एक एक राजू लम्बी घोड़ी शेष चौदह भूमियों में चित्रा पृथ्वी से एक एक हजार योजन नीचे जाकर (१) किन्नर, (२) किंपुरुष, (३) महोरग, (४) गन्धर्व, (५) यक्ष, (६) भूत और (७) पिशाच-इन सात प्रकार के व्यन्तर देवों के साथ और दो हजार योजन नीचे जाकर (नाग कुमार), (२) विधुत कुमार, (३) सुपर्ण कुमार, (४) अग्नि कुमार (५) वात कुमार, (६) स्तनित कुमार, (७) उदधि कुमार, (८) दोप कुमार मौर (8) दिक्कुमार इन नन प्रकार के भवनवासी देवों के निवास स्थान हैं। ___ खरभाग के नीचे पौरासी हजार योजन मोटा पंक भाग है। उनमें असुरों कुमार पौर रासक्षों और कभाग केमीचे प्रस्सी योजन मोटे प्रवल भाग में प्रथम नरक है। उसमें नारकियों के बिल अर्थात् निवासस्थान है। अब भवनवासो इन्द्रों के सामानिक प्रादि देवों की संख्या कहते हैं--पूर्व प्रादि दिशामों के सोम, यम, वरुण और कुबेर नामक चार लोकपाल' तथा तैतीस प्रायस्त्रिशद देव ये सब तो इन्द्रों के समान ही होते हैं और सामानिक मादि में विशेषता होती है । चमरेन्द्र के सामानिक देव चौंसठ हजार, तनुरक्षक दो लाख छप्पन हजार, अन्तः पारिषद् अठाईस हजार, मध्य पारिषद तीस हजार पौर बाह्य
SR No.090292
Book TitleNamokar Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages427
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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