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णमोकार ग्रंथ
रेवती रानी 'हाय-हाय' शब्द उच्चारण करती हुई उनके पास दौड़ी पाई और बहुत भक्ति तथा विनयपूर्वक उनको सचेत किया । इसके पश्चात् अपने महल में ले जाकर बहुत कोमल और पवित्र भात्रों से हर्षपूर्वक रानी रेवती ने प्राशुक पाहार कराया। सच है जो दयावान होते हैं, उनकी बुद्धि दान देने में स्वभाव से ही तत्पर रहती है ।
चन्द्रप्रभ क्षल्लक को अब भी सन्तोष न हुमा अतः उन्होंने भोजन से निवृत्त होने के पश्चात् ही अपनी माया से असह्य दुर्गधयुक्त वमन कर दिया। क्षुल्लक की यह दशा देखकर रानी रेवती को बहुत दुःख हुआ। उसने बहुत पश्चात्ताप किया कि मुझ पापिन के द्वारा प्रकृतिविरुद्ध न जाने क्या प्राहार दे दिया गया जिससे इनको इतना कष्ट हुआ । मैं बड़ी प्रभागिनी हूँ जो ऐसे उत्तम पात्र का हमारे यहां निरंतराय पाहार नहीं हुआ । इस प्रकार बहुत-कुछ पश्चाताप और यात्मनिन्दा कर अपनी असावधानता को धिक्कारते हुए उसने क्षुल्लक का शरीर पोंछा और किंचित उष्ण जल से धोकर निर्मल किया। क्षल्लक रेवती की इस प्रकार अचल भक्ति देखकर बहत प्रसन्नता के साथ बोले.-देवी! संमार में श्रेष्ठ मेरे परम गुरु महाराज गुप्ताचार्य की धर्म वद्धि तेरे मन को पवित्र करे जो कि सब सिद्धियों को देने वाली है और तुम्हारे नाम से मैंने यात्रा में जहां-तहां जिन भगवान की पूजा को है वह भी तुम्हें कल्याण को देने वाली हो । हे देवी ! यथार्थ में तुम ही सभ्यस्त्वी हो वास्तव में तुम जैन शासन के रहस्य को ज्ञाता हो । तुमने जिन संसार श्रेष्ठ और संसार समुद्र पार करने वाले मनु टिम प्रहग किया है उसकी मैंने अनेक तरह से परीक्षा की, पर उसमें तुमको मेरु के समान अचल पाया। तुम्हारे इस त्रिलोकपूज्य सम्पयत्व की कौन प्रशंसा करने में समर्थ हैं । अर्थात् कोई नहीं। आप ही का मनुष्य जन्म पाना सफल है । इस प्रकार उत्तमोत्तम गुणभूषित रानी रेवती की प्रशंसा कर उससे सर्ववृत्तान्त वर्णन कर क्षुल्लक अपने स्थान पर चला गया। इसके अनन्तर वरुण नृपति और रेवती रानी अपने राज्य का सुखपूर्वक पालन करते हुए दान-पूजादि शुभ कार्य में अपना समय बिनाने लगे। इसी प्रकार राज्य करतेकरते बहुत समय व्यतीत हो गया।
एक दिन राजा को किसी कारण से वैराग्य हो गया और संसार, शरीर भोगादिकों से उसे बड़ी धूणा हुई । मैं आज ही मोहमाया का नाश कर अपने हित के लिए तत्पर हो जाऊं। यह विचार कर उसी समय अपने शिवकीति नामक पुत्र को राज्य भार सौंपकर आप वन की ओर रवाना हुए मौर उसी समय मुनिराज से दीक्षा ग्रहण कर ली जोकि संसार का हित करने वाली है । दीक्षित होकर उन्होंने पंचाचार आदि मुनिव्रतों का निरतिचार पालन करते हुए कठिन-से-कठिन तपश्चर्या करने लगे और अंत में मृत्यु प्राप्त कर समाधिमरण के प्रभाव से वे माहेन्द्र स्वर्ग में जाकर देव हुए। जिन भगवान के चरणकमलों की परमभक्त महारानी रेवती भी संसार के सुख को सुखाभास और अनित्य समझकर सब माया जाल सोड़ जिन-दीक्षा ग्रहण कर अपनी शक्ति अनुसार तपश्चर्या कर प्रायु के अन्त में ब्रह्म स्वर्ग में जाकर महविक देव हुई। हे भव्य पुरुषो ! यदि तुम भी स्वर्ग या मोक्ष सुख को चाहते हो तो जिस तरह श्रीमती रेवती रानी ने मिथ्यात्व छोड़ प्रमूढ़ दृष्टि अंग का प्रकाश किया उसी तरह तुम भी मिथ्यात्व छोड़कर स्वर्ग मोक्ष सुख के देने वाले अत्यन्त पवित्र और बड़े-बड़े देव विद्याधर राजा-महाराजामों से भक्तिपूर्वक ग्रहण किये हुए सम्यग्दर्शन का अंग सहित निरतिधार पालन करो।
इति श्री अमूढदृष्टयंगे रेवती कथा समाप्ता॥