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णमोकार ग्रंथ
परीक्षा कर अब रेवती रानी की परीक्षा करने का विचार किया। दूसरे दिन अपनी विद्या के बल से कमल पर बैठे हुए और वेदों के मन्त्रों का महाध्वनि के साथ उपदेश करते हुए चार मुख वाले ब्रह्म का वेष बनाया। और नगर से पूर्व दिशा की ओर कुछ दूरी पर ठहर गये । ये हाल सुनकर राजा वरुण तथा भव्यसेन आदि अनेक जन उनके दर्शन के लिए वहाँ गये और ब्रह्माजी को उन्होंने नमस्कार किया। उनके चरण स्पर्श कर बहुत प्रसन्न हुए और अपना अहोभाग्य समझने लगे। राजा वरुण ने जाते समय अपनी प्रिया रेवती से भी चतुर्मुख ब्रह्माजी की वन्दना के लिए चलने को कहा था। पर रेवती सम्यक्त्व रत्न से भूषित सौर जिन भगवान की अनन्य भक्त थी, इसलिए वह नहीं गयी। उसने राजा से उत्तर में कहा-'महाराज! मोक्ष और सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र प्राप्त कराने वाला सच्चा ब्रह्मा जिनशासन में प्रादि जिनेन्द्र कहा गया है। उनके सिवा कोई अन्य ब्रह्मा नहीं हो सकता और जिस ब्रह्मा की वन्दना के लिए पाप जा रहे हैं वह ब्रह्मा नहीं किन्तु कोई धूर्त मनुष्यों के चित्तरंजन करने के लिए ठगने के निमित्त ब्रह्मा का वेष बनाकर आया है । मैं तो कदाचित् नहीं चलूगी।'
दूसरे दिन क्षुल्लक ने गरुड़ पर बैठे हुए चतुर्भुज, शंख, चक्र, गदा मादि से युक्त और दैत्यों को कंपायमान करने वाले खड़ग सहित विष्ण भगवान का वेष बनाकर दक्षिण दिशा में अपना डेरा जमाया और फिर तीसरे दिन बुद्धिमान क्षुल्लक ने बैल पर बैठे हुए पार्वती के मुख कमल को देखते हुए, शिर पर जटा और अंग में भस्म लगाए हुए, गणपति युक्त और जिन्हें हजारों देव आकर नमस्कार कर रहे हैं, ऐसे शिव का वेष धारण कर पश्चिम दिशा की तरफ शोभा बढ़ाई।
चौथे दिन उस बुद्धिमान क्षुल्लक ने अपनी विद्या के बल से समवशरण में सिंहासन पर विराजे हुए आठ प्रतिहार्यों से विभूषित मिथ्यादृष्टियों के अभिमान को नष्ट करने वाले मानस्तंभादि से युक्त निग्रंथमुक्तधारी और हजारों देव विद्याधर, चक्रवर्ती, राजा, मनुष्यादि पाकर जिसके चरणारविदों को नमस्कार करते हैं, ऐसा संसार श्रेष्ठ तीर्थकर का भेष बनाकर उत्तर दिशा को अलंकृत किया। तीर्थकर भगवान का प्रागमन सुनकरसब मनुष्यों को प्रानन्द हुआ । सम प्रसन्न होते हुए भक्तिपूर्वक उनकी बन्दना करने को गये। राजा वरुण तथा भव्यसेन आदि भी बन्दना करने को गये। भगवान के दर्शन करने के लिए भी रेवती रानी को न जाती हुई देखकर सबको बड़ा आश्चर्य हुआ। बहुतों ने उससे वन्दना करने को चलने के लिए प्राग्रह भी किया पर वह नहीं गई । कारण कि वह सम्यक्त्व रूपी रत्न ने भूषित थी । उसे सर्वत्र देवाधिदेव जिनेन्द्र भगवान के भाषण किये हुए वचनों पर पूर्ण तथा दृढ़ विश्वास था कि तीर्थकर परमदेव चौबीस ही होते हैं और वासुदेव नौ तथा रुद्र ग्यारह होते हैं, फिर उनकी संख्या का उल्लंघन करने वाले ये दसवें वासुदेव, बारहवें रुद्र तथा पच्चीसवें तीर्थकर कहाँ से मा सकते हैं ? वे तो अपने ने शुभाशुभ कर्मों के अनुसार जहा उन्हें जाना था, चले गये, फिर ये नवीन रचना कैसी? इनमें न तो कोई सच्चा रुद्र है, न वासुदेव है और तीर्थकर है, किन्तु कोई मायाबी इन्द्रजालिक अपनी धूर्तता से लोगों को ठगने के लिए अनेक रूप धारण कर लेता है। यह विचार कर रेवती रानी तीर्थकर बन्दना के लिए भी नहीं गई । सच है कहीं सुमेरु पर्वत भी वायु से चलायमान हुमा है ? कदापि नहीं। उसी प्रकार रेवती भी सुमेरुवत् निश्चल रही।
इसके बाद क्षुल्लक चन्द्रप्रभ शुल्लक ही के वेष में परन्तु अनेक प्रकार की व्याधि से प्रसित हो मलिन शरीर होकर रेवती रानी की परीक्षा के लिए मध्याह्नकाल में भोजन के निमित्त रेवती के महल में पहुंचे। पांगन में पहुंछते ही मूळ खाकर पृथ्वी पर धड़ाम से गिर पड़े। उसको देखते ही धर्मवत्सला