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णमोकार पंथ
मशरना तस्य५
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गायनथा प्रारम्भ ।। पवित्र जैन मार्ग को अज्ञानी तथा असमर्थ जनों के द्वारा की गई निन्दा को यथायोग्य रीति से दूर करना तथा अपने गुण और पराये दोषों को ढकना उपगहन अंग है । इस सम्यग्दर्शन के पांचवें उपगहन अंग के पालन करने में प्रसिद्ध होने वाले जिनेन्द्र भक्त की कथा इस प्रकार है
नेमिनाथ भगवान् के जन्म से पवित्र और दयालु पुरुषों से परिपूर्ण इस भारतवर्ष में सौराष्ट्र नाम का एक देश है । उसके अन्तर्गत पाटलिपुत्र नाम का मनोहर नगर है। जिस समय को यह कया है उस समय वहाँ के राजा यशोध्वज थे। उनकी रानी का नाम सुसीमा था। यह बड़ी सुन्दरी थी। उसके एक पुत्र था। उसका नाम सुवीर था। बेचारी सुसीमा के पूर्वोपार्जित कर्म के उदय से वह महाव्यसनो और चोर हो गया है। सच तो यह है कि जिन्हें प्रागे कुयोनियों के दुःख भोगने होते हैं उनके न तो उत्तम कूल में जन्म लेना काम आता है और न ऐसे पुत्रों से बेचारे माता-पिता को कभी सुख होता है। गौड़देश के अन्तर्गत एक तामलिप्ता नाम की सुन्दर नगरी है इसमें जिन भक्त नाम के एक सेठ रहते थे। उनका जैसा नाम था वैसे ही वे जिनेन्द्र के भक्त भी थे। वे जिनेन्द्र भगवान् के भक्त थे। वे जिनेन्द्र भक्त सच्चे
उदारात्मा और विचारशील थे। वे अपने श्रावक-धर्म का बराबर पालन करते रहते थे। उन्होंने बड़े-बड़े विशाल नवीन जिन मन्दिर बनवाए. बहुत से जीर्ण मन्दिरों का उद्धार किया जिन प्रतिमार बनबाकर उनकी प्रतिष्ठा करवाई। वह चविध संघ को भक्तिपूर्वक दान देता और वैयावस्य करता था। सम्यग्दृष्टि शिरोमणि जिनेन्द्रभक्त सेठ का महल सात मंजिल या उसकी अन्तिम मंजिल पर्यात् सातवीं मंजिल पर एक बहुत ही सुन्दर जिन चैत्यालय में श्री पाश्वनाथ भगवान् की बहुत मनोहर और रत्नमयी प्रतिमा थी। उसपर रत्नों के बने हुए तीन छत्र बड़ी शोभा दे रहे थे। उन छत्रों में एक पर बड्यमणि नाम का प्रत्यन्त कांतिमान बहुमूल्य रत्न लगा हुआ था। इस रत्न का वृत्तांत राजा यशोध्वज
सुबीर ने सुना। उसने अपने साथियों को बुलाकर कहा-सुनिये ! जिनेन्द्रभक्त सेठ के चैत्यालय में प्रतिमा पर लगे हुए छत्रत्रयों में एक वैडूर्यमणि नाम का बहुमूल्य रत्न लगा हुआ है । क्या तुम लोगों में से कोई उस रत्न को लाने का साहस रखता है ? उनमें से सूर्यक नाम का एक चोर बोला महाराज ! यह तो एक अत्यन्त साधारण बात है । पर यदि वह रल इन्द्र के मस्तक पर भी होता तो मैं उसे क्षणभर में ला सकता था। सच है जो जितने दुराचारी होते हैं वे उतना ही पाप कर्म भी कर सकते हैं । सूर्यक के लिए सुवीर को पोर से रत्न लाने की प्राशा हुई। वहाँ से आकर उसने एक मायावी क्षुल्कक का वेष धारण किया। क्षल्लक बनकर लोगों को ठगने के लिए वह ब्रत उपवासादि करने लगा। उससे उ शरीर कुछ ही दिनों में बहुत कृश हो गया।
__ तत्पश्चात् वह अनेक नगरों पौर ग्रामों में घूमता हुआ और लोगों को अपने कपटी वेष से ठगता हुमा कुछ दिनों में तामलिप्तापुरी आ पहुंचा। जिनेन्द्र भक्त सेठ बड़े धर्मात्मा थे इसलिए धर्मात्मानों को देखकर उन्हें बड़ी प्रसन्नता होती थी। उन्होंने जब इस धूर्त क्षुल्लक के आगमन का समाचार सुना तो उन्हें बहुत प्रसन्नता हुई। वे उसी समय सब गृह कार्य छोड़कर क्षुल्लक महाराज की वंदना के लिए गये। तपश्चर्या से उनके क्षीण शरीर को देखकर उनकी उस पर और अधिक श्रद्धा हो गयी। उन्होंने भक्ति के साथ क्षुल्लक को प्रणाम किया और फिर वे इस क्षुल्लक को अपने घर पर ले पाए। सच बात तो यह है कि
'अहो धूर्तस्य धूर्तत्वं लक्ष्यते के न भूतले। पल्प प्रपंचतो गाई विद्वाम्सश्चापि वषितः॥
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