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________________ णमोकार प्रय १२६ यह कहकर महारानी महल से प्रपना सम्बन्ध छोड़कर जिन मन्दिर गई और उसने यह दृढ़ प्रतिज्ञा की कि जब बौद्ध गुरु संघश्री का मिथ्याभिमान चूर्ण होकर मेरा रथोत्सव बड़े ठाट-बाट के साथ निकलेगा और जिनधर्म की खूब प्रभावना होगी तब ही मैं भोजन करूंगी। नहीं तो वैसे ही निराहार रहकर अपने प्राण विसर्जन करूंगी ! परन्तु अपनी आंखों से परम पूज्य व पवित्र जिनशासन की दुर्दशा न देख सकूगी अर्थात् कभी नहीं देखंगी । ऐसा हृदय में दृढ़ निश्चय करके मदनसुन्दरी जिनेन्द्र भगवान के सन्मुख कायोत्सर्ग धारण कर एकचित्त हो पंचनमस्कार मन्त्र की प्राराषना करने लगी। उस समय उसकी ध्यानारूढ़ निश्चल अवस्था ऐसी प्रतीत होती थी मानों सुमेरू पर्वत की चूलिका हो । 'भव्यों को जिन भक्ति का फल अवश्य ही मिलता है'-इस नीति के अनुसार महारानी भी उससे वंचित नहीं रही महारानी के निश्चल ध्यान के प्रभाव से पद्मावती का प्रासन कंपित हुमा । वह प्रर्द्धरात्रि के समय आई महारानी से बोली-"देवी ; जब तुम्हारे हृदय में जिन भगवान के चरण कमल शोभित हैं तब तुम्ह चिता करने की कोई आवश्यकता नहीं। उनके प्रसाद से तुम्हारा मनोरथ नियम से पूर्ण होगा। सुनो ! कल-प्रात काल ही भगवान अकलंक देव उधर पायेंगे । वे जैन धर्म के बड़े भारी विद्वान हैं । वे ही मंघश्री का मद चूर्ण कर जैन धर्म की खूब प्रभावना करेगें और तुम्हारा रथोत्सव कार्य निर्विघ्न समाप्त करेंगे। उन्हें अपने मनोरथ के पूर्ण करने वाले मूर्तिमान शरीर समझो।"-यह कहकर पावतो अपने स्थान पर चली गई । देवी की बात सुनकर महारानी अत्यन्त प्रसन्न हुई। प्रात:काल होते ही उसने महाभिषेक पूर्वक पूजा की । तदनन्तर उसने अपने राजकीय प्रतिष्ठित पुरुषों को अकलंक देव को डढ़ने के लिए चारों ओर दौड़ाया। उनमें जो पूर्व दिशा की ओर गये थे उन्होंने एक उपवन में अशोक वृक्ष के नीचे बहत से शिष्यों के साथ एक महात्मा को वैठे देखा। उनके किसी एक शिष्य से महारमा का नाम-धाम पूछकर वे अपनी मालकिन के पास आ गए और सब हाल उन्होंने उससे कह मुनाया । यह सुनकर धर्मवत्सला वह रानी खान-पान आदि सब सामग्री लेकर अपने साधर्मियों के साथ बड़े वैभव से महात्मा अकलंक के निकट गई। वहां पहुंचकर उसने बड़े प्रेम और भक्ति से उन्हें प्रणाम किया उनके दर्शन से रानी को अत्यन्त प्रानन्द हुग्रा जैसे सूर्य को देखकर कमलिनी को और मुनियों का तत्व ज्ञान देखकर बुद्धि को आनन्द हुमा करता है । तत्पश्चात् रानी ने धर्म-प्रेम वश होकर अकलंक देव की चंदन, मगर फल, फूल, वस्त्रादि से बड़ी विनय के साथ पूजा की और पुनः प्रणाम कर उनके पास बैठ गई। उसे माशीर्वाद देकर पवित्रात्मा अकलंक बोले-"देवी ! तुम अच्छी तरह तो हो और सब संघ भी प्रच्छी तरह है ?" महात्मा के वचन को सुनकर रानी की प्रांखों में पांसू बह निकले। उसका गला भर प्राया। यह बही कठिनता से बोली--प्रभो! संघहै तो कशल पर इस समय उसका घोर एपमान हो रहा है। इसका मुझे बड़ा दुःख है" यह कहकर उसने संघधी का सब हाल अकलेक देव से निवेदन किया। बह सुनकर पवित्र धर्म का अपमान अकलंक न सह सके । उन्हें क्रोध आ गया। वे बोले-"वह वराक संघधी मेरे पवित्र धर्म का अपमान करता है पर वह मेरे सामने है कितना, इराकी उसे खबर नहीं है। अच्छा उसके अभिमान को देखूगा कि वह कितना पांडित्य रखता है। मेरे साथ खास बुद्ध तक तो शास्त्रार्थ करने की हिम्मत नहीं रखता तब वह बेचारा किस गिनती में है।" इस तरह रानी को संतुष्ट करके अकलंक देव ने संघश्री के शास्त्रार्थ के विज्ञापन की स्वीकारता उसके पास भेज दी और आप बड़े उत्सव के साथ जिन मन्दिर में आ पहुँचे । पत्र संघश्री के पास पहुंचा उसे देखकर और लेखन शैली को पढ़कर उसका चित्त शोभित हो उठा। यत में उसे अपनो वचन पूर्णता करने को शास्त्रार्थ के लिए
SR No.090292
Book TitleNamokar Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages427
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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