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________________ णमोकार ॐ ह्रीं मह सुसंवत्राय नमः ॥३६७॥ संबर रूप होने से अथवा गणधरादि से वेष्ठित रहने से सुसंवृत हैं ॥३६७।। ॐ ह्रीं अहं सुगुप्तात्मने नमः । ३६८॥ प्रापका पात्मा गुप्त होने से अथवा मालवादि से अलग होने से पाप सुगुप्तात्मा है ।।३६६।। ॐ ह्रीं अर्ह सुभृताय नमः ।। ३६६।। आप उत्तम ज्ञाता होने से सुभत हैं ।।३६६।। ॐ ह्रीं अहं सुनयतत्वविदे नमः ॥३७॥ पाप नगगम, संग्रह प्रादि नयों का मर्म जानते हैं इसलिये सुनयतत्यविद् कहलाते हैं ।।३७०।। ॐ ह्रीं प्रहं एकविधाय नमः ।।३७१।। एका केवलशान अथवा एक प्राध्यात्मविद्या धारण करने से पाप एकविध हैं ।।३७१।। ॐ ह्रीं ग्रह महाविद्याय नमः ॥३७२१। आप अनेक विद्याओं को जानने के कारण महाविद्य हैं ॥३७२।। ॐ ह्रीं मह मुनये नमः ||३७३ ।। माप प्रत्यक्ष शानी होने से मुनि हैं ॥३७३।। ॐ ह्रीं श्रह परिवृद्धाय नमः ॥३७४।। तपस्वियों के स्वामी होने से बाल परिवृद्ध हैं ॥३७४।। *ह्रौं प्रहं पतये नमः ॥३७॥ जगत् की रक्षा करने से प्रथवा दुख दूर करने से पाप पति है ॥३७॥ ॐ ह्रीं मह धोशाय नमः ।।३७६।। प्रापबुद्धि के स्वामी होने से धीश हैं ।।३७६।। ॐ ह्रीं पह विद्यानिधये नमः ।।३७७|| आप शान के सागर होने से विद्या निषि हैं ||३७७॥ ॐ ह्रीं महे साक्षिणे ममः ॥३७८॥ तीनों लोकों को प्रत्यक्ष जानने से पाप साक्षी हैं ॥३७८।। ॐ ह्रीं पह विनेताय नमः ॥३७६॥ मोक्षमार्ग को प्रगट करने से पाप विनेता हैं ॥३७६।। ॐ ह्रीं महं विहितातकाय नमः ।।३८०॥ यम का नाश करने से प्राप विहितातक कहलाते है॥३८०॥ ॐ ह्रीं मह पित्रे नमः ।।३८१॥ नरकादि गतियों से रक्षा करने के कारण आप पिता है ॥३८॥ ॐ ह्रीं अहं पितामहाय नमः ॥३८२।। आप सबके गुरु होने से पितामह हैं ॥३८२॥ ॐ ह्रीं महं पातवे नमः ॥३८३।। सबकी रक्षा करने से प्राप पात है ॥२८॥ ॐ ह्रीं मह पवित्राय नमः ।।३८४।। भक्ति को पवित्र करने से पाप पवित्र हैं ॥३८४॥ ॐ ह्रीं मह पावनाय नमः ॥३८५।। सबको शुद्ध करने से आप पावन हैं ॥३८५।। ॐ ह्रीं अहं गतये नमः ॥३८६।। ज्ञानस्वरूप होने से पाप गति हैं ॥३८॥ ॐ ह्रीं ग्रह त्राताय नमः ।।३८७।। सबकी रक्षा करने से पाप त्राता हैं ।।३८७।। ॐ ह्रीं अहं भिषग्वराय नमः ॥३८८|नाम लेने मात्र से ही समस्त रोगों को अथवा जन्म, जरा, मरणादि रोगों को दूर करने से प्राप भिषा अथवा उत्तम वैध हैं ।।३८८।। ॐ ह्रीं अहं वर्याय नमः ।।३८६।। आप सबसे श्रेष्ठ होने से वर्ष है ॥३६।। ॐ ह्रीं प्रहं बरवाय नमः ॥३६०॥ स्वर्ग, मोक्षादि को देने के कारण पास वरद हैं ।।३६०॥ ॐ ह्रीं भह परमाय नमः ॥३६१॥ भक्तों की इच्छा पूर्ण करने से पाप परम हैं ॥३६॥ ॐ ह्रीं पह से नमः ॥३६२॥ अपने प्रात्मा सयर भक्तों को पवित्र करने के कारण माप पुमान हैं ॥३६२॥
SR No.090292
Book TitleNamokar Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages427
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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