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________________ णमोकार ॐ ह्रीं महंगण्याय नमः || ३४० ॥ सर्व कल्याण करने से अथवा समवशरण के योग्य होने से गण्य हैं ।। ३४० || ६५ हैं ।। ३४२ ॥ हैं २३४३|| ॐ ह्रीं श्रीं पुण्यकृते नमः || ३४१ || पुण्य का कर्ता होने से पुण्य कृत हैं ।। ३४१॥ ॐ ह्रीं महं पुण्य शासनाय नमः || ३४२ || प्रापका मार्ग पुण्य रूप होने से प्राप पुण्य शासन ॐ ह्रीं धर्मारामाय नमः || ३४३ || धर्म का बगीचा रूप (समूह) होने से माप धर्माराम ॐ ह्रीं अहं गुणग्रामाय नमः || ३४४ || गुणों के समूह होने से गुणग्राम हैं ।। ३४४ || ॐ ह्रीं पुण्यापुण्यनिरोधकाय नमः || ३४५|| पुण्य और पाप दोनों का नाश करने से पाप पुण्यापुण्य निरोधक कहे जाते हैं ||३४५ || ॐ ह्रीं महं पापापेताय नमः || ३४६ ।। हिंसादि समस्त पापों से रहित होने से पापात कहे जाते हैं ॥ ३४६ ॥ ॐ ह्रीं नमः ॥३४७॥ पाप रहित होने से विपात्मा कहे जाते हैं ||३४७ || ॐ ह्रीं श्रविपात्माय नमः || ३४८ ।। पाप कर्म नष्ट होने से विपात्मा कहे जाते हैं || ३४८ || ॐ ह्रीं मह वीतकल्मषाय नमः || ३४६|| कर्म मल रहित होने से वीतकल्मष हैं ।। ३४६ ॥ ॐ ह्रीं अहं निन्दाय नमः || ३५० || परिग्रह रहित होने से निर्द्धन्द हैं ||३५० || ॐ ह्रीं श्रीं निदाय नमः || ३५१ ।। अहंकार के न होने से निर्मद हैं ।। ३५१ ।। ॐ ह्रीं अर्हताय नमः ।। ३५२ ।। उपाधि रहित होने से शांत हैं || ३५२ ॥ ॐ ह्रीं ग्रहं निर्मोहाय नमः || ३५३ || मोह रहित होने से निर्मोह हैं ।। ३५३ ।। ॐ ह्रीं हें निरुपद्रवाय नमः || ३५४ ।। उपद्रव रहित होने से निरुपद्रव हैं ।। ३५४ ।। ॐ ह्रीं श्रहं निर्निमेषाय नमः || ३५५ || आपके नेत्र के पलक दूसरे पलक से नहीं लगते हैं इसलिये माप निर्निमेषा हैं ।। ३५५ ।। ॐ ह्रीं ॐ ह्रीं महं निराहाराय नमः || ३५६ ।। कवलाहार न करने से निराहार हैं ।। ३५६ ॥ निष्क्रियाय नमः || ३५७ ॥ क्रिया रहित होने से निष्क्रिय हैं ।। ३५७ ॥ ॐ ह्रीं ग्रह निरुत्वाय नमः || ३५८ || सब प्रकार के संकट रहित होने से निरुपप्लव हैं ।। ३५८ ।। ॐ ह्रीं श्रीं निष्कलंकाय नमः || ३५६ ॥ सब प्रकार के कलंक रहित होने से निष्कलंक हैं ।। ३५२ ।। ॐ ह्रीं श्रहं निरस्तेनाय नमः || ३६०|| पापों के दूर करने से निरस्तेन हैं ॥ ३६० ॥ ॐ ह्रीं अहं निर्चुतांगाय नमः ।। ३६१ ।। म्रपराधों का नाश करने से निर्ऋतांग हैं ।। ३६१|| ॐ ह्रीं श्रीं निरास्त्रवाय नमः || ३६२ || आस्त्रव रहित होने से निरास्त्रय हैं ॥३६२॥ ॐ ह्रीं महं विशालाय नमः || ३६३ || अतिशयविशाल होने से विशाल हैं ।। ३६३।। ॐ ह्रीं यह विपुलज्योतये नमः || ३६४|| केवलशान रूप अपार ज्योति को धारण करने से विपुल ज्योति है ॥ ३६४ ॥ ॐ ह्रीं श्रहं अतुलाय नमः || ३६५ ॥ श्रापके समान ग्रन्य कोई न होने से अतुल हैं ।। ३६५ ।। ॐ ह्रीं श्रीं श्रचित्य वैभवाय नमः || ३६६ ।। आपकी विभूति का कोई चितन भी नहीं कर सकता इसलिए भाष भविष्य वैभव हैं ।। ३६६ ॥ |
SR No.090292
Book TitleNamokar Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages427
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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