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नमीकार ग्रंथ
(१५) स्वेद वोष–अर्थात् पसीना यह दोष कैसा है ? इससे शरीर में सुगिन्धत वस्तु का लेपन करने पर भी क्षण मात्र में वह पुनः उसे नष्ट करके दुर्गन्ध को प्राप्त करा देता है और प्रगट होते ही बेचैनी होने लगती है। इसके संग से सुगन्धित वस्त्र भी दुर्गन्धित हो जाते हैं ऐसा दुर्गन्ध रूप स्वेद दोष है यह दोष अरहन्त परमात्मा को नहीं होता । ऐसे अरहन्त सकल परमात्मा मेरे भी दोष को दूर करें।
(१६) राग (प्रेम) दोष-कैसा है यह राग ? इस राग रूप जाल की विचित्र गति है। इसमें समस्त संसारी जीव फंसे हुए हैं । जैसे जाल में पशु-पक्षी नाना प्रकार के दुःखों को भोगते हैं, इसी प्रकार जो भी इस जाल में फंसा वह भयानक दुःख को भोगता रहता है। पुन: यह राग कैसा है? अग्नि के समान प्रातापकारी है।
भावार्थ-जिस वस्तु से जीप को सा प्रयतम होता है उसका वियोग हो जाने से आताप अर्थात् दुःख होता है। यावत् अभीष्ट वस्तु प्राप्त न हो तावत् चाह रूपी अग्नि से वह जला करता है। ऐसा राग नामक दोष ब्रह्मा, विष्णु और महेश में भी पाया जाता है।
भावार्थ- ब्रह्माको देवांगनाओं से, विष्णु को सुदर्शन चक्र से और महेश को त्रिशूल से राग होने से वे सभी दुःखी हैं । ऐसे देव नाम मात्र सुखी हैं । अतः राग रूपी दोष की अग्नि को श्री जिनेन्द्र भगवान ने समता रूपी शीतल जल से शान्त किया है । उनके चरणारविन्द सदा मेरे हृदय रूपी सरोवर में निवास करें।
(१७) द्वेष अर्थात वैर दोष-यह दोष कैसा है ? जब मन में द्वेष पैदा हो जाता है तब मित्र भी शत्रु हो जाते हैं । यह द्वेष दोष अन्य देवों में भी पाया जाता है।
भावार्थ-विष्ण ने राक्षसों से वैर किया था। उनके लिए नरसिंह अवतार धारण करके दैत्येन्द्र हिरण्यकश्यप के वक्षःस्थल को बड़े यत्न से नाखूनों से विदीर्ण किया था । पुनः अर्जुन के सारथी कृष्ण ने महाभारत संग्राम में कौरवों को मारा और महादेवजी ने भस्मासुर का वध किया तथा वाण से अग्नि उत्पन्न करके तीन पुरों को जला दिया । मतः द्वेष इनके अन्दर है पर केवली भगवान को किसी से भी द्वष नहीं है। वे षटकायिक जीवों के रक्षक अरहन्त परमात्मा भव समुद्र से मुझे पार करें।
(१८) मरण दोष-यह मरण कैसा है ? इस मरण के मुख का ग्रास सभी संसारी जीव है। यह दोष भी परहन्त सकल परमात्मा में नहीं है।
इति अष्टादश दोष वर्णन समाप्तम् । प्रारम्भ में ही कहा था कि-अठारह दोष रहित और आत्मिक अनन्त चतुष्ट्य व वाह्य ३४ अतिशय से युक्त तथा अष्ट प्रातिहार्य से युक्त परहन्त देव हैं। इसलिए ऊपर अठारह दोषोंका संक्षेप में वर्णन किया गया है। अब ४६ गुणों का संक्षिप्त स्वरूप कहते हैं
योहा-चौतीसों प्रतिशय सहित, प्रातिहायं पुन पाठ।
अनन्त चतुष्टय गुण बरें, यह छियालोसों पाठ ॥ अर्थ सुगम है । अन्योक्तं :
दोहा-विगत दोष मतिशय गरिम, प्रतिहार्य चतुनंत ।
एवंछियालीस गुण सहित, विरक्ततानंतानंत ॥