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________________ णमोकार ग्रंथ और द्वीप से चौगुणे द्वीपों में चन्द्र और सूर्य जानने चाहिए इसी प्रकार प्रसंख्यात द्वीप समुद्र तक जानना चाहिए जिन सानु में जितने ज्योतिष देव है उनमें प्राधे ज्योतिष देव हैं उनमें प्राधे ज्योतिष देव तो एक भाग में और प्राधे एक भाग में गमन करते हैं। आगे पंच प्रकार ज्योतिष देवों की प्राय का प्रमाण कहते हैं-चन्द्रमा की आयु एक लाख वर्ष सहित पल्योपम प्रमाण है, सूर्य की हजार वर्ष सहित पल्प प्रमाण, शुक्र की सौ वर्ष सहित पल्य प्रमाण, गुरु की पौण पल्य, ग्रहों की माघ पल्य, प्रकीर्णक तारे योर नक्षत्रों की उत्कृष्ट प्रायु पल्प का चतुर्थांश और जघन्य आयु पल्योपम का प्रष्टमांश होती है । चन्द्रमा के चद्राभा, सुसीमा, प्रभंकरा, और प्रार्यमालिनी-ये चार देवागनाएं और सूर्य के युति, सूर्यप्रभा, प्रभंकरा अनिमालिनी-ये चार पट देवागनाए हैं। ये एक-एक पट देवांगना चार-पार हजार परिवार पेवी सहित हैं और यदि एक-एक पर देवांगना विक्रिया करे तो अपनी-अपनी परिवार देवियों की संख्या के समान अर्थात् चार चार हजार देवांगनारूप हो जाती है। सबसे निकृष्ट देबों के न्यून से न्यून बत्तोस देवांगनाएं होती हैं । मध्य के देवों में यथायोग्य जानना चाहिए। समस्त ज्योतिष देवनांगनाओं को प्रायु अपने स्वामियों से भी प्रमाण होती हैं। ग्रहों के पाठ हजार, नक्षत्रों के बार-चार हजार और तारों के दो दो हजार देवांगनाएं होती हैं । समस्त ज्योतिष देवों का काय प्रमाण सात हाथ और साढ़े बारह दिन बीतने पर उच्छवास नथा पाहार होता है। प्रागे भवन त्रिकों से उत्पन्न होने वाले जीवों का वर्णन करते हैं--उन्मार्गचारी, जिनोपदिष्ट मार्ग से विपरीत पाचरण करने वाले, निदान बंध करने वाले, अग्नि जल पात आदि से प्राण विसर्जन करने वाले, प्रकाम निर्जरा, बालतप तथा पंचाग्नि तप तपने वाले, सदोष चारित्री जीव भवनत्रिक प्रयात् भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देवों में उत्पन्न होते हैं । इन भवनत्रिक देवों के मादि की पीतलेश्या तक अर्थात् कृष्ण, नील कापोत और पीत ये चार लेश्यायें होती हैं । परिणामों की उत्कृष्ट विशुद्धता न होने से पद और शुक्ल ये दो लेश्यायें नहीं होती हैं । अब यहाँ प्रसंगवश लेश्याओं का लक्षण, स्वरूप तथा दृष्टांत द्वारा कर्मों को कहते हैं जिसके द्वारा आत्मा स्वयं पुण्य पाप को स्वीकार करता है उसे लेश्या कहते हैं भावार्थ-योग प्रवृति और कषाय के संयोग को लेश्या कहते हैं और लेश्या तथा कपाय से ही बंध चतुष्ट होता है । शुभ योग तथा मंद कषाय से शुभ रूप पुण्य प्रकृतियों का मोर अशुभ तथा तीन कषाय से पाप रूप अशुभ प्रकृतियों का प्रास्रव होता है तथा बंध होता है । इसी कारण जिसके द्वारा मात्मा अपने आपको पुण्य पाप से लिप्त करते हैं उसे लेश्या कहते हैं -ऐसा कहा है । वह लेश्या दो प्रकार की है । एक द्रव्य लेदया और दूसरी भाव लेश्या। वणं नामकर्म के उदय से जो शरीर का श्वेत, कृष्ण प्रादि वर्ण होता है उसे द्रव्य लेश्या कहते हैं। यह बाल लेश्या मात्मा की कुछ अपकारक व उपकारक नहीं होती है । कषायों से अनुरंजित योगों की प्रवृति को भाव लेण्या कहते हैं । इसी लेश्या के द्वारा समस्त संसारी जीव शुभाशुभ कर्म ग्रहण करते हैं । ये दोनों ही प्रकार की लेश्यायें कृष्ण लेश्या, नील लेश्या, कापोत लेश्या,पीत लेश्या, पद्य लेश्या और शुक्ल लेश्या-ऐसे छह प्रकार की होती हैं तथा प्रत्येक के उत्तर भेद अनेक हैं । वर्ण को अपेक्षा से भ्रमर के समान कृष्ण लेश्या, नोल मणि (नीलम) के समान नील लेश्या, कबूतर के समान कापोत लेश्या, सुवर्ण के समान पीत लेश कमल के समान, पद्म लेश्या और शंख के समान शुक्ल लेश्या होती है। मागे किस गति में कौनसी लेश्या होती है उसका वृतान्त कहते हैं
SR No.090292
Book TitleNamokar Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages427
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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