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________________ २५६ णमोकार अंथ बलभद्र, चक्रवर्ती नहीं हो सकता, चौथे, पांचवें, छठे, सातवें से निकलकर तीर्थकर नहीं हो सकता; पौचर्ने, छठे, सातवें से निकलकर चरम शरीरी नहीं हो सकता; छठे, सात से निकलकर महावत धारण नहीं कर सकता ; सातवें का निकला अव्रत सम्यग्दृष्टी भी नहीं होता । नरकों में जाने वालों का नियमप्रसैनी पंचेन्द्रिय लगातार प्रथम नरक में माठ बार तक जाता है नवमी बार नहीं जाता; मुर्ग, नीलकंठ, तीतर मादि हिंसक पक्षी लगातार दूसरे नरक तक सात बार जाता है; गुड, सियार मादि हिंसक पशु तीसरे नरफ तक छह बार आते हैं। सर्प ग्रादि दुष्ट कोड़े चौथे नरक तक लगातार पांच बार जाते हैं। सतह प्रादि दुष्ट नव वाले पशु पांचवे नरक तक लगातार चार बार जाते हैं; स्त्रो छठे नरक तक लगातार तीन बार तक जा सकती है। मनुष्य मोर मत्स्य लगातार सात नरक तक दो बार जा सकते हैं यह उत्कृष्ठ जाने का नियम है। नरकों के विविध दुःखों का वर्णन सर्व नरक बिल वज्र समान दृढ़ हैं । गोल, चौकोर मादि अनेक प्राकृति के हैं । सब नरक अनेक दु:खदायक सामग्री से भरे हैं, महा दुर्गन्ध रूप हैं। यहाँ अनेक प्रकार के दुःख हैं परन्तु मुख्य दुःख चार प्रकार है पहला क्षेत्रीय शीन, उष्ण, दुर्गन्ध आदि का, दूसरा शारीरिक जो रोग प्रादि शरीर से उपजते हैं, तीसरा मानसिक-आकुलित भावों का रहना तथा इच्छा का पूर्ण न होना, चौथा असुरकृत लष्ट्राना मादि और पांचवां ताड़न, मारने, छेदन, भेदन, शूलरोपण आदि पंच प्रकार यह दुख नारको परस्पर देते है। नरक ऐसे दुःख रूप है। वहाँ अधिक प्रारम्भ परिग्रह की तृष्णा वाले तीब विषय कषाय वाले जीव जाते हैं । नारकी जन्म लेकर शिर के बल से नीच नरक में गिरकर तीन बार उछलते हैं | नवीन नारकी को पुराने नारकी नाना प्रकार लड़ाकर दुःख देते हैं। तब नवीन नारकी को विभंगावधि उपजती है जिससे पूर्व वैर विचार कर रौद्र भाव करके वे भी लड़ते हैं। असुरकुमार देव वैर बताकर लड़ाते हैं जिससे नारफी प्रशुभ विक्रिया से दंती, नखी, शृङ्गो रूप धारण करते हैं और दंड मुगदर, खड़ग, त्रिशूल आदि शस्त्रों से परस्पर प्राघात करते है। जिस प्रकार इस लोग में अज्ञानी पुरुष भनेक मैंडे, मैंसे और हाथियों को परस्पर लडाते हैं और उनकी हार जोत से प्रानन्द मानते अथवा तमाशा देखते हैं उसी प्रकार दुष्ट कौतु की देव अवधिज्ञान के द्वारा उनके पूर्व वैरों का स्मरण कराके परस्पर लड़ाते तथा दुःखित करते रहते हैं और स्त्रयं तमाशा देखते हैं । नरकों में पानी पेलकर, करोंत से चीरकरकर, मुद्गरों से कूट कर खड्ग से खंड खंड करके, शूलों की शय्या पर घसीटकर, तप्त कड़ाहों में जलाकर, तप्त धातु पिलाकर, तप्त पूतली चिपटाकर इत्यादि नाना प्रकार कष्ट देते हैं। नरकों की भूमि महा दुर्गन्धित और कंटकमयी है। प्रसिपत्र बन के करोंत समान पत्र गिरकर अंगों को छिन्न भिन्न करते हैं। खान पान की सामग्री वहाँ रंचमात्र नहीं है । दुर्गन्धित, कृमि, पीप मिश्रित क्षार जल भरी वैतरणी नदी बहती है। नरक मृतिका ऐसी दुर्गन्धित है कि यदि यहां आये तो प्रथम पायड़े की मृतिका को दुर्गन्ध से प्राधा कोश पर्यन्त के जीव मर जाय । प्रागे मागे के पाथड़ों की मृतिका पधिक अधिक दुर्गन्धित होने से प्राधे-माधे कोश के अधिक जीबों को मारे, इसनी वेदना होने पर भी नारकी नरफायु पूर्ण होने पर ही मरते है । शरीर खंड खंड हो जाने पर भी पुनः पारेबत एक हो जाते हैं। तीसरे नरक पर्यन्त प्रसुरकुमार लड़ाते हैं । मरने पर नारकियों के शरीर कपूरवस उड़ जाते हैं। जिनको नरक से निकलकर तीर्षकर होना होता है उनकी नरक वेदना मरण से छह मास पहले ही मिट जाती है। अथ मध्यलोकवर्णन प्रारम्भ : एक राजू विस्तार वाले इस मध्य लोक में जम्बू द्वीप मादि तथा लवण समुद्र प्रादि उत्तमउत्तम नाम वाले प्रसंख्यास द्वीप और समुद्र है। उन सब के मत्यन्त बीच में एक लक्ष योजन प्रमाण
SR No.090292
Book TitleNamokar Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages427
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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