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णमोकार ग्रंथ
बड़े खुश हुए । सबने मिथ्यात्व मत छोड़कर जिन धर्म स्वीकार किया और प्रकलंक देव का सोने, रत्न आदि अलंकारों से खूब आदर सत्कार किया, खूब उनकी प्रशंसा की। सच बात है -'जिन भगवान के पवित्र सम्यग्ज्ञान के प्रभाव से कौन सत्कार का पात्र नहीं होता। अकलंक देव के प्रभाव से का उपद्रव टला देखकर महारानी मदन मुन्दरी ने पहले से कई गुणे उत्साह के साथ रथ निकलवाया । रथ बड़ी सुन्दरता के साथ सजाया गया था उसकी शोभा देखते ही बन पड़ती थी वह बेशकीमती वस्त्रों से सुशोभित था। छोटी-छोटी घंटियां उसके चारों ओर लगी हुई थी। उसकी मधुर आवाज एक बड़े घंटे की प्रावाज से मिलकर जो कि उन घंटियों के बीच में था बड़ी सुन्दर जान पड़ती थी। उस पर रत्नों और मोतियों की मालायें अपूर्व शोभा दे रही थीं। उसके ठीक बीच में रत्नमयी सिंहासन पर जिन भगवान की बहुत सुन्दर प्रतिमा शोभित थी। वह मौलिक, छत्र, चमर भामंडल आदि से अलंकृत थी। रथ चलता जाता था और उसके प्रागे प्रागे भव्य पुरुष बड़ी शक्ति के साथ जिन भगवान की जय बोलते हुए और भगवान के अनेक प्रकार के पुष्पों की जिनकी सुगन्ध से सब दिशायें सुगन्धित होती थीं, वर्षा करते चले जाते थे । चारण लोग भगवान की स्तुति पढ़ते जाते थे। वस्त्र, आभूषणों से सुसज्जित कुल कामिनियां सुन्दर-सुन्दर मधुर स्वर से गीत गाती चली जाती थीं। नर्तकियां नृत्य करती जाती थीं। अनेक प्रकार के बाजों का सुन्दर शब्द दर्शकों के मन को अपनी ओर आकर्षित करता था। इन सब शोभाओं से रथ ऐसा जान पड़ता था मानों पुण्यरूपी रत्नों को उत्पन्न करने को चलने वाला वह एक दूसरा रोहण पर्वत उत्पन्न हुआ है।
उस समय जो याचकों को दान दिया जाता था, वस्त्राभयण वितीर्ण किये जाते थे उससे रथ की शोभा एक चलते हुए कल्पवृक्ष की सी जान पड़ती थी । हम रथ की शोभा का कहाँ तक वर्णन करें? श्राप इसी से अनुमान कर लीजिये कि जिसकी शोभा को देखकर ही बहुत से अन्य धर्मी लोगों ने जब सम्यग्दर्शन ग्रहण कर लिया तब उसकी सुन्दरता का क्या ठिकाना है ? इत्यादि दर्शनीय वस्तुओं से सजाकर रथ निकाला गया उसे देखकर यही जान पड़ता था मानों महादेवी मदन सुन्दरी की यशोराशि ही चल रही है। वह रथ भव्य पुरुपों के लिए सुख देने वाला था। उस सुन्दर रथ को हम प्रतिदिन भावना करते हैं। उसका ध्यान करते है। वह हमें सम्यग्दर्शन रूपी लक्ष्मी प्रदान कर ! जिस प्रकार अकलंक देव ने सम्यग्ज्ञान की प्रभावना की। उसका महत्त्व सर्व साधारण लोगों के हृदय पर अंकित कर दिया उसी प्रकार और और भव्य पुरुषों को भी उचित है कि वे भी अपने में जिस तरह बन पड़े जिन धर्म को प्रभावना करें। जैन धर्म के प्रति उनका जो कर्तव्य है उसे वे पूरा करें।
इति ज्ञानोद्योतक श्रीमद अकलंकवाल्यानं समाप्तम्।
अथ श्री कुंकूवाचार्य मुनिराख्यान प्रारम्भ :जम्बूद्वीप के भारत क्षेत्र में मालव देश के अन्तर्गत बूंदीकोटे के निकटवर्ती वाशुपुर नामक एक नगर था। जिस समय का यह आख्यान है उस समय उसके राजा कुमुदचन्द थे। कुमुदचन्द धर्मज्ञ, नीति परायण, और प्रजा हितैषी थे । उनकी रानी का नाम कुमुदचन्द्रिका था। वह भी बड़े सरल स्वभाव की
और सुशीला थी। यहाँ पर विशेष करके श्रीमान धनाढ्य व्यपारीगण निवास करते थे जिनमें एक कुंद नाम के श्रेष्ठी अति धनाढ्य, धर्मात्मा और धर्म प्रेमी थे। इनके कुंदलता नाम की सहचारिणी स्त्री थी। दोनों की ही जैन धर्म पर अखंड प्रीति थी। हमारे चरित्र नामक की कुंद-कुंद उन्हीं के पुण्य के फल थे। उनका जन्म वीर सम्वत् ४९७ विक्रमी सम्वत ५ में हुआ था। उनके जन्म के उपलक्ष्य में कुद श्रेष्ठी ने बहुत उत्सव किया, धान दिया। श्री शांतिनाथ स्वामी के मन्दिर में पूजन विधान कराया। यशोध्वजा
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