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णमोकार ग्रंथ
इसकी पावश्यकता प्रथमावस्था अर्थात् गृहावस्था ही में होती है यही कारण है कि हमारे प्राचार्यों ने परमात्मा की पूजा, भक्ति, उपासना करना गृहस्थों का मुख्य धर्म बताया है । यथा श्री पद्मनंदि प्राचार्य गृहस्थों के लिए दर्शन. स्तवन और पूजन की अत्यन्त प्रावश्कता को प्रकट करते हुए लिखते हैं :
ये जिनेन्द्र न पश्यंति, पूजयंति स्तुवंति न।।
निष्फलं जीवितं तेषां तेषाधिकच गृहाश्रमम् ।। अर्थ-जो जिनेन्द्र भगवान को पूजन, दर्शन और स्तवन नहीं करते उनका जीवन निराफल है और उनके गृस्थाश्रम को धिक्कार है। तथा सुभाषितावली से श्री सकनकी नि आचार्य ने यहां तक लिखा है--
पूजा विना न कुर्येत् भोग सौख्यादिक कदा।' अर्थात् गृहस्थों को भगवान का पूजन किए बिना कदापि भोग, उपभोग आदि न करना चाहिए। सबसे पहले पूजन करके फिर अन्य कार्य करने चाहिए तथा इसी आवश्यकता को प्रकट करते हुए श्री स्वामी कुंदकंदाचार्य रयणसार में यहां तक लिखते हैं :
पाणं पूजा भूमवं, सायधम्मो साथया तेणविण।।
झाणमयणं मुक्खं, जइ धम्मो तं विणा सोवि ॥ प्रर्थ-दान देना और पूजन करना धायक का मुख्य धर्म है। इसके बिना कोई धावक नहीं कह ला सकता और ध्यानाध्ययन करना मुनि का मुख्य धर्म है । जो इससे रहित है वह मुनि नहीं है।
भावार्थ - यह है कि मुनियों के ध्यानाध्ययन की तरह दान देना और पूजन करना ये थावक के मुख्य कर्तव्य कर्म हैं । इत्यादि उपरोक्त वाक्यों से स्पष्ट विदित होता है कि पूजन करना गृहस्थ का धर्म तथा नित्य और प्रावश्यक कर्म है । विना पूजन के मनुष्य जन्म निष्फल और गृहस्थाश्रम धिक्कार का पात्र है। बिना पूजन के कोई गृहस्थ श्रावक का नाम ही नहीं पा सकता । यथा :.
प्राराध्यते जिनेन्ना गुरुपू ष विनति धामिर्क: प्रोतिरुच्चं, पात्रेभ्यो दानमापन्निहत जनकृते तच्च कारुण्य बुद्धया। __ तत्वाभ्यासः स्वकोयवतरतिरमल वर्शनं यत्र पूज्यं,
तमाहस्थ्यं बुधानामितरविह पुन:खदो मोहपाशः ।। अर्थ---जिनेन्द्र देव की आराधना, गुरु के समीप विनय, धर्मात्मा लोगों पर प्रेम, सत्पात्रों को दान, विपत्ति में फंसे हुए लोगों का करुणा बुद्धि से दुःख दूर करना, तत्वों का अभ्यास, अपने व्रतों में लीन होना और निर्मल सम्पग्दर्शन का होना-ये सब क्रियाएं जहां मन, वचन, काय से होती हैं वही गहस्थपना को मान्य है और जहां ये क्रियाए' नहीं हैं वहीं गृहस्थपना इस लोक और परलोक दोनों में दःख देने वाला केवल मोह का जाल है अतएव यात्महितेन्छूक सभी प्राणियों को मोक्ष रूपी महानिधी को प्राप्त कराने वाली यह देव वन्दना अर्थात् जिन दर्शन, पूजन प्रादि पूर्ण शक्ति एवं योग्यता के अनुसार अपना कर्तव्य समझकर नित्य अवश्य ही करना चाहिए। पूजन कई प्रकार की होती है यथा भगवज्जिनसेन प्राचार्य ने आदिपुराण में लिखा है
प्रोक्ता पूज्याहतामिया, साचतुर्धासदाचर्नम् ।
चतुर्मुखमहः कल्प, व मश्चाष्टान्हिकोऽपि च ॥ अर्थ-अरहंतों की पूजा का नाम इज्या है और वह चार प्रकार की है -नित्यमह. अप्टान्हिकमह, चतुर्मुख और कल्पवृक्ष । इनके अतिरिक्त एक पांचवां ऐंद्रध्वज यज्ञ है जिसको इन्द्र ही करता है।