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णमोकार प्रय
चतुर्मख प्रादि पूजा सदा काल नहीं बन सकती और न ही वर्तमान समय में सब गृहस्थ जैनियों से इसका अनुष्ठान हो सकता है। अतएव मव साधारण नियों के लिए नित्य पूजा को हो मुख्यता है अर्थात् सभी नित्य पूजा कर सकते हैं । नित्य पूजा का मुख्य स्वरूप भगबज्जिनसेनाचार्य ने प्रादिपुराण में इस प्रकार लिखा है
तत्र नित्यमहोनाम, शश्वजिनगृहं प्रति ।
स्वगृहाम्नीयमानाऽ , गंधपुष्पाक्षसाविका ॥ अर्थ-प्रत्येक दिन जिन मन्दिर में अपने घर से गन्ध, अक्षत, पुष्प प्रादि पूजन की सामग्री ले जाकर प्रतिदिन जिनेन्द्रदेव की पूजा करने को नित्यमह कहते हैं। ऐसा ही धर्मसंग्रहश्रावकाचार में
जलाचं धौतपूतांगे, हामीतसिमालयम् ।
यक्षर्यते जिनायुक्तया, नित्य पूजाऽभ्यधापिसा ॥ प्रथ --पवित्र शरीर होकर गहस्थ लोग जो अपने गृह से लाए हुए जल, चन्दन, अक्षत, पुष्प आदि द्रव्यों से जिन भगवान की पूजन करते हैं वह नित्य पूजा कही जाती है। पुनः
देवार्चनं गृहेस्वस्य, त्रिसंध्यं वेव वंदनम् ।
मुनि पावर्चनं वाने, सोऽपि नित्यार्थतामता ।। अर्थ-अपने घर में जिन भगवान की पूजन करना, तीनों काल देव वन्दना करना तथा दान देने के समय मुनियों के चरणों की पूजन आदि करना ये सब नित्य पूजन के भेद हैं अतएव प्रत्येक गृहस्थ को पूजन या दर्शन करने के लिए अपनी शक्ति एवं योग्यता के अनुसार अष्ट द्रव्य अवश्यमेव निरन्तर अपने घर से ले जाकर इन्द्र आदि देवों के द्वारा पूज्य परमात्मा वीतराग सर्वश देव की प्रतिदिन पूजा करनी चाहिए । प्रकट रहे कि दर्शन के समय जो जिनेन्द्र देव आदि की स्तुति पूर्वक नाम आदि का उच्चारण करके जिन प्रतिमा के सम्मुख एक दो प्रादि द्रव्य चढ़ाए जाते हैं सामान्यतः वह भी नित्य पूजन
है। उपरोक्त कथन का अभिप्राय यह नहीं हैं कि द्रव्य के बिना मन्दिर जी में जाना ही निषिद्ध है। जाना निषिद्ध नहीं हैं क्योंकि यदि किसी समय द्रव्य उपलब्ध न हो तो केवल भाव पूजन भी हो सकता है । तथापि गृहस्थों के लिए द्रव्य से पूजन करने की अधिक मुख्यता है । इस कारण नित्य पूजन का ऐसा स्वरूप वर्णन किया है । पूजन फल प्राप्ति के विषय में पूजन के संकल्प और उद्यममात्र से देवगति को प्राप्त करने वाले मेंढक की कथा सर्वत्र जैन शास्त्रों में प्रसिद्ध है । यथा---पुण्यास्त्रयकोश, महावीरपूराण, धमसग्रहथावकाचार आदि अब यहा उस कथा का सार लिखा जाता है।
यह भरत क्षेत्र जिसमें हम सब प्राणी निवास कर रहे हैं जम्बूद्वीप के सुदर्शन मेरु को दक्षिण दिशा में है । इसमें अनेक तीर्थंकरों का जन्न हुआ है अतएव यह महान् व पवित्र है । मगघ भारतवर्ष में एक प्रसिद्ध और घनशाली देश है मानों सारे संसार की लक्ष्मी जैसे यहीं पाकर एकत्रित हो गई हो। यहां के निवासी प्रायः सभी धन सम्पत्ति युक्त, धर्मात्मा, उदार और परोपकारी हैं। जिस समय का यह व्याख्यान है उस समय मगध देश की राजधानी राजगृह नामक एक बहुत मनोहर नगर था। सब प्रकार के उत्तमोत्तम भोगोपभोग योग्य पदार्थ वहां बड़ी सुलभलता से प्राप्त होते थे। विद्वानों के समूह वहां निवास करते थे । वहां के पुरुष देवों से और स्त्रियां देव बालानों से कहीं बढ़कर सुन्दर थीं । स्त्री-पुरुष प्रायः सब ही सम्यक्त्व रूपी भूषण से सपने को विभूषित किए हुए थे और इसीलिए राजगृह उस समय