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गमोकार
प्रभात होने पर प्रात: काल सम्बन्धी क्रियाओं से निवृत हो राजसभा में महाराण विश्वसेन के पास गई। महाराजरामीको भाव रेखकर प्रपनामसिन छोड़ दिया और वाई'मोर बैठाकर कहा- प्रिये! माज क्या विचार कर पाई हो?
महारानी बोली-'नाथ ! माग रात्रि के प्रन्तिम समय सोलह स्वप्न देखे हैं । उका फल श्रवण करने की इच्छा से आप के पास माई हूं।" यह कहकर देखे हुए स्वप्न ज्यों के त्यों कह सुनाये। सुनकर राजा ने कहाकि 'ये स्वप्न तुमने बहुत अच्छे देखे हैं । इनका फल सूचित करता है कि सुम्हारे गर्भ में तीर्थकर जन्म लेंगे। जिनकी आज्ञा का इद्रादिक बड़े बड़े देवता तक सम्मान करते हैं, उन स्वप्नों का उत्तम फल वामादेवी अपने पति के मुख से सुनकर बहुत हर्षित हुई।
पश्चात सखियों के साथ निज मंदिर में वापिस चली गई । इन्द्र की प्राशा से भेजी हई रुचिक नामक प्रयोदशम् द्वीप के मध्य स्थित वलयाकार चौरासी हजार योजन उन्नत और इतने ही योजन विस्तार वाले कधिक संशक पर्वत के शिखर पर कूटों में निवास करने वाली दिक्कुमारि देवीयां शकर जिनमाता की नाना प्रकार से भक्ति सेवा करने लगी। भगवान वैशाख मास कृष्णपक्ष की दोपण के दिन विशाखा नक्षत्र का योग होने पर मालत नामक त्रयोदाम स्वर्ग को छोड़कर वामादेवी के गर्भ में पा विराने । कुछ दिनों पश्चात् गर्भ धीरे-धीरे बढ़ने लगा। उनके भार से वामादेवी को किसी प्रकार की बाधा नहीं होती थी जिस प्रकार दर्पण में प्रतिबिम्ब के पड़ने से किसी प्रकार की बाधा नहीं होती है।
ज्यों घर्षण प्रतिबिम्ब सों। भारी कहो न जाए।
त्यों जिन पति के गर्भ सों। खेवमणाने माय ।।१।। अर्थात् गर्भ पूर्ण दिनों का हुया तब पौष मास के कृष्ण पक्ष की एकादशी के दिन जबकि विशाखा नक्षत्र का योग या तब वामादेवी ने नवमें महीने के शुभ लक्षणों से युक्त विभवनमहतीय सन्दर पुत्ररत्न प्रसव किया । पुत्र के उत्पन्न होते ही नगर भर में प्रानन्दोत्सव होने लगा। देवों के प्रासन चलायमान हुए । मुकुट नमने लगे। चतुर्विध देवों के निलयों में स्वमेव पृथक् प्रकार के वादित्रों का शब्द होमे लगा । सब भरत क्षेत्र में तीर्थ राज का अवतार जानकर बड़े समारोह के साम स्वर्ग के देवों ने बनारस नगरी में प्राकर बहुत उत्सव किया ।
पश्चात् भगवान को ऐरावत हाथी पर बैठाकर सुमेरु पर्वत ले गए और जाकर क्षीर समुद्र के स्फटिक से उज्जवल और निर्मल पवित्र जल से भगवान का अभिषेक कराया। न्हवन क्रीड़ा समाप्त होने पर उन्हें ऐरावत गयन्द पर बैठा पूर्व जैसे महोत्सव के साथ बनारस नगरी में ले पायें और प्रसूति गह में माता के निकट दन्टाणी दारा विराजमान कराए। तदनन्तर भगवान के माता-पिता की पजा स्ततिका उनका यशोगान करते हुए अपने-अपने स्थान पर चले गए। भगवान निजवय प्रमाण देवकुमारों के साथ क्रीड़ा करते हुए शुक्ल द्वितीया के चन्द्रमा की तरह दिनों-दिन बढ़ने लगे।
इनका समय देवकुमारों के साथ हंसी विनोद करते हुए बहुत सुख से बीतता था । जब भगवान युवावस्था में पदार्पण करते हुए सोलह वर्ष के हुए, तब एक समय सभा में बैठे हुए महाराज विश्वसेन ने अंवसर पाकर भगवान से कहा----कि प्रियपुत्र! प्रब तुम योग्य प्रवस्था के हो गए हो। अतएव एक राज्य कन्या से पाणिग्रहण करने की स्वीकारता प्रदान कर हमारी कामना पूर्ण करो जिस प्रकार प्रथम अवतार ऋषभदेव मे नाभिराय की मनोकामना पूर्ण की पी। क्योंकि ऐसा करने से ही कुल की रक्षा हो सकेगी और तुम्हें कुल की रक्षा करनी चाहिए।'