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________________ णमोकार पंथ ॐ ह्रीं प्रहं दिव्याय नमः ।।१०२।। पाप अत्यन्त मनोहर होने से दिव्य है ।।१०।। * ही बाई पमनाये नम: ! १०३।। प्रापकी वाणी सर्वथा निर्दोष है इसलिये पाप पूतदाक कहलाते हैं ।।१०३॥ ___ॐ ह्रीं प्रर्ह पूतशासनाय नमः ।।१०४॥ प्रापका उपदेश अथवा मत पवित्र होने से पाप पून शासन है ॥१०४।। ॐ ह्रीं अह पूतात्मने नमः ।।१०५|| आपका आत्मा पवित्र है अथवा पाप भन्य जीवों को पवित्र करने वाले हैं । प्रतः पाप पूतात्मा कहलाते हैं ।। १०५।। ॐ ह्रीं ग्रह परम ज्योतिषे नमः ॥१०६॥ प्रापका केवलज्ञान रूपी तेज सर्वोत्कृष्ट है। इसलिये पाप परम ज्योति है ।।१०६॥ ॐ ह्रीं मई धांध्याय नमः ।। १०७॥ पाप धर्म के प्रमुख अधिकारी है इमाला धर्माध्यक्ष हैं॥१०॥ . ॐलीं रह पमीश्वराय नमः ।।१०८॥ पाप इन्द्रियों को निग्रह करने में श्रेष्ठ हैं इसलिए दमीश्वर कहलाते हैं ।।१०८॥ __ * हीं पहं श्रीपतये नमः ||१०६ | पाप मोक्षादि लक्ष्मी के भोक्ता वा स्वामी है अनाव पाप श्रीपति हैं ॥१०॥ ॐ ह्रीं पह महते नमः ।।११०॥ माप महाशानी होने से भगवान् हैं ।। ११०।। ॐहीं ग्रह बहते नमः ॥१११॥ श्राप परम पूज्य होने से तथा सभी के द्वारा पाराधना करने के योग्य होने से अहंन्त हैं ॥१११।। ॐ ह्रीं मह परमाय नमः ।। ११२॥ पाप कर्म रूपी रज से रहित होने से अरजा है ।।११।। ॐ ह्रीं मह बिरजाय नमः ।।११३।। आप के द्वारा भव्य जीयों के कर्म मल दूर होते हैं तथा पाप शानावरण दर्शनावरण से रहित हैं अलएन बिरजा हैं ।।११३।।। ॐ ह्रीं मह शुचये नमः ॥११४॥ प्राप परम पवित्र है कि वा पूर्ण ब्रह्मचर्य को पालन करने वाले है अथवा मलमूत्र रहित हैं एवं मोहरहित हैं अतः प्राप शुचि हैं ॥११॥ ____ॐ ह्रीं ग्रह तीर्थकृते नमः ॥११५॥ पाप धर्मरूपी तीर्थ के कर्ता है तथा संसार से पार करने वाले द्वादशांग रूपी तीर्थ कर्ता हैं इसलिए पाप तीर्थकृत हैं ।।११।। ॐ ह्रीं श्रहं केवलिने नमः ॥११६॥ पाप के बलशान से युक्त होने से केवली है ।।११।। ॐ ह्रीं मह ईशानाय नमः ।।११७|| माप अनन्त शस्तिमान है तथा सबके ईश्वर है इसलिए पाप ईशान है ।।११७॥ ॐ ह्रीं मह पूजाहाय नमः ।।११८॥ प्राप झाठ प्रकार की पूजा के लिए योग्य होने से पूजाई हैं ।।११।। ॐ ह्रीं मह स्मातकाय नमः ।। ११६|| प्रापने अपने पातिया कर्मों का नाश कर दिया है तथा पूर्ण शान प्राप्त कर लिया है इसलिये माप स्नातक हैं ।।११६॥ ___ॐ ह्रीं मह प्रमलाय नमः ।।१२०॥ पाप धातु उपधातु प्रादि मल रहित होने से अमल हैं ॥१,२०॥ *ह्रीं महं अनन्तदीप्तये नमः ॥१२१॥ प्रापको केवलशान दीप्ति अथवा प्रापके शरीर की कान्ति मनन्त है अतः माप अनन्तदीप्ति कहलाते हैं ।।१२१।।
SR No.090292
Book TitleNamokar Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages427
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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