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________________ २६ णमोकार म ॐ ह्रीं पह अच्युताय नमः ॥४॥ पाप प्रात्मा से स्वरूप से कभी भी व्युत नहीं होते इसलिए आप अच्युत हैं ।1८४ । ॐ ह्रीं अर्ह अनन्ताय नमः ।।८।। पापके गुणों का पन्त नहीं है तथा पापके गुण नाशवान् नहीं इसलिए माप अनन्त हैं ।।८५॥ ___* ह्रीं अहं प्रभविष्णुवे नमः ॥८६॥ माप के मन्दर अनन्त शक्ति है इसलिये प्राप प्रभविष्णु कहलाते हैं 11८६॥ ___ॐ ह्रीं अहं भवोभवाय नमः ॥८७॥ संसार में जन्म मरण से माग मुक्त हो चुके हैं एवं संसार में प्रापका जन्म उस्कृष्ट गिना जाता है इसलिये माप भवोभव है ॥७॥ ॐ ह्रीं पह प्रभविष्णवे नमः ॥८॥आपकी स्वाभाविक परिणति समय-समय में परिणमनशील है अथवा सौ इन्द्रों के प्रभुत्व को प्राप्त करने का मापका स्वभाष है इसलिये पाप प्रभविष्णु कहलाते है ||८|| ॐ ह्रीं अहं प्रजराय नमः ॥८६॥ पाप बुढ़ापे से रहित है मतः माप मजर कहलाते हैं ॥६॥ ॐ ह्रीं मह प्रजयाय नमः ||१०|| मापको कोई भी जीत नहीं सकता इसलिए माप प्रजम हैं ॥६॥ ___ॐ ह्रीं अहं भ्राजिष्णवे नमः ।।११।। करोड़ों सूर्य और चन्द्रमा को कान्ति से भी प्रापकी कान्ति अधिक है इसलिए पाप भ्राजिष्णु कहलाते हैं ।।१।। ॐ ह्रीं श्रहं धीश्वराय नमः ॥६२|| पाप पूर्ण ज्ञान के स्वामी है इसलिए पाप धीश्वर कहलाते हैं ।।१२।। ___ ॐ ह्रीं महं अव्ययाय नमः ॥६३|| पाप सदा अविनाशी है । पाप कभी नाशक रूप अथवा न्यूनाधिक नहीं होते इसलिए पाप अव्यय कहलाते हैं ।।६३॥ ॐ ह्रीं मह विभावसवे नमः ॥१४|| कर्मरूपी काष्ठ को जलाने से भाप विभावसु अर्थात् मग्नि हैं। मोहरूपी अन्धकार को नाश करने से आप विभावसु अर्थात् सूर्य है, पयवा धर्म रूपी प्रमृत की वर्षा करने से विभावसु अर्थात् सूर्य हैं, तथा राग-पप्रादि विभाव परिणामों को आपने नाश किया है इसलिए भी पाप विभावसु कहलाते हैं ॥४॥ ॐ ह्रीं मह पसंभूष्णवे नमः ।।१५।। संसार में उत्पन्न होने का पापका स्वभाव नहीं है इसलिए पाप प्रसंभूष्णु हैं ।।६।। ॐ ह्रीं अहँ स्वयम्भूष्णवे नमः ।।६६॥ अपने पाप ही आप प्रगट अर्थात् प्रकाशमान हये है इसलिये प्राप स्वयम्भूष्णु कहलाते हैं ।।१६॥ ॐ ह्रीं ग्रह पुरातनाय नमः ।।६७॥ पाप मनादि सिद्ध है, इसलिए पुरातन हैं ।।७।। ॐ ह्रीं अह परामात्मने नमः |६८॥ पापका पात्मा परमोत्कृष्ट है इसलिये माप परमात्मा कहलाते हैं। ॐ ह्रीं मह परंज्योतिषे नमः ||६ माप मोक्षमार्ग को प्रगट करने वाले है इसलिये पाप परंज्योति कहलाते हैं और तीनों लोकों में भापही उत्कृष्ट है 18ET ___ॐ ह्रीं मह त्रिजगत्परमेश्वराय नमः ।।१०।। माप तीनों लोकों के स्वामी है इसलिए पाप त्रिजगरपरमेश्वर कहलाते हैं ।।१००॥ * हीं पहं दिव्य भाषा पतये नमः ॥१०॥ माप दिव्य ध्वनि के स्वामी है, इसलिये पाप दिव्य भाषा पति है ।।१०१॥
SR No.090292
Book TitleNamokar Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages427
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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