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गमोकार मंच
ॐ क्लीं महं योगिने न :: ॥६॥ प्रापने अपने योगों का निरोध किया है इसलिए प्राप योगी है ॥६७॥
__ ॐ ह्रीं महं योगीवरार्चिताय नमः ॥६८।। गणधरादि योगीश्वर भी प्रापको पूजा करते हैं इसलिए पाप योगीश्वरार्चित हैं ।।६।।
ॐ ह्रीं मह ब्रह्मविदे नमः १६६|| पाप अपने ब्रह्म पर्थात् पात्मा का स्वरूप जानते हैं इसलिए आप ब्रह्मवित् हैं ॥६॥
ॐ ह्रीं मह ब्रह्मतत्वशाय नमः ||७०11 पाप ब्रह्म तत्व प्रयाँत् प्रात्मतत्व का अथवा केवलज्ञान का मा. दया का अथवा कामदेव के नष्ट करने का मर्म जानते हैं इसलिए आप ब्रह्मतत्वश है ७०॥
ॐ ह्रीं अहं ब्रह्मोधाविदे नमः ॥७१।। आप ब्रह्म अर्थात् प्रात्मा के द्वारा कहे हुए समस्त तत्वों को मथवा प्रात्मविद्या को जानते है। इसलिए पाप ब्रह्मोद्यावित् कहलाते हैं ||७१॥
ॐ ह्रीं पह यतीश्वराय नमः ॥७२॥ रत्नत्रय सिद्ध करने वाले यतियों में भी आप श्रेष्ठ हैं इसलिए यतीश्वर कहे जाते हैं॥७२॥
___ॐ ह्रीं मई शुशायनमः ॥७३॥ क्रोष प्रादि कषायों से रहित होने से आप शुद्ध हैं ॥७३॥
___ॐ ह्रीं मह मुखाय नमः ||७४|| केवलज्ञानी होने से अथवा सबको जानने से प्राप दुर हैं ॥४॥
ॐ ह्रीं मई प्रमुखात्मने नमः ॥७॥ अपने पारमा का स्वरूप जानते हैं इसलिए प्रबुद्धात्मा हैं ॥७॥
___ॐ ह्रीं अहं सिद्धार्थाय नमः ।।७६।। धर्म,अर्थ, काम और मोक्ष चारों पुरुषार्थ पापको सिद्ध हो चुके है तथा मोक्ष प्राप्त करने का ही प्रापका मुख्य प्रयोजन है एवं आपके द्वारा ही जीवादि पदार्थों की सिद्धि होती है तथा मोक्षका अर्थ अर्थात् कारण रत्नत्रय पापको सिद्ध हो चुका है इसलिए मापको सिवाणं कहते हैं ।।७।।
____ *ही अहं सिक्षपासनाय नमः ॥७७॥ मापका शासन अर्थात् मत पूर्ण तथा प्रसिर है, इसलिए पाप सिद्ध शासन कहलाते हैं ॥७७।।
ॐ ह्रीं मह सिद्धाय नमः ॥७८॥ प्रापके द्वारा कमों के मारा होने से प्राप सिद्ध कहलाते हैं ७
ॐ ह्रीं पहं सिमान्तविवे नमः ॥७६।पाप द्वादशांग सिद्धान्त के पारगामी हैं, इसलिए भाप सिद्धान्तविद कहलाते हैं ॥७६
____ॐ ह्रीं अहं ध्येयाय नमः ।।८।। योगी लोग भी प्रापका ध्यान करते हैं, इसलिए पाप ध्येय हैं ।।८।।
ॐ ह्रीं पहं सिवसाध्याय नमः ॥१॥ मापकी पाराधना मुनिजन तथा सिद्ध जाति के देव भी करते हैं इसलिए पाप सिव साध्य कहलाते हैं ।।८१॥
ॐ ह्रीं मह जगविते नमः ||२॥ माप सम्पूर्ण जगत के हितकारी हैं, शसलिए श्राप जगत हित कहलाते हैं ।।२।। " ह्रीं पई सहिष्णवे नमः ॥८३ पाप सहनशील होने से सहिष्णु कहलाते हैं ॥८३।।