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________________ णमोकार पंप 'इसमें कमल पुष्प हैं-ऐसे कहकर सबको कमल पुष्प दिखा दिया तब श्वेताम्बरी लोग बहत नजित हुये और कहने लगे-'आज का यह प्रसंग योग्य नहीं'ऐसा कहकर वाद प्रारम्भ हुमा तब श्वेताम्बारियों ने जैनाम्नाय से विरुद्ध वीर, भैरव क लिका देवी इत्यादि कुदेवों का आह्वान किया और कहा'श्वेताम्बरी मत प्रथम है कि दिगम्बरी, इस विषय का कोई प्रबल प्रमाण दो-तब कुन्दकुन्दाचार्य ने मूनमंत्र के द्वारा कुदेवों का आगमन बन्द कर दिया । तब श्वेताम्वर तेज रहित स्तब्ध हो गये। तदनन्तर कुन्द कुन्दाचार्य दोनों संघों को साथ लेकर गिरनार पर्वत पर गये और वहाँ श्री नेमि नाथ जी के निर्वाण क्षेत्र का दर्शन कर विदेह क्षेत्र स्थित शाश्वत तीर्थकर श्री सीमंधर स्वामी का का स्मरण किया और पंच परमेष्ठि का स्मरण कर उभय संघ के समक्ष इस प्रकार से उच्च स्वर से प्रार्थना की-कि "श्वेताम्बरी धर्म को स्थापना पहले हुई या दिगम्बरी की । इसके निर्णय के लिए कोई प्रमाण या प्रवल चमत्कार हो" ऐसा कहते ही “दिगम्बरी धर्म को स्थापना प्रथम हुई" ऐसी गम्भीर नाद से थोड़ी देर तक आकाशवाणी होतो रही, तब श्रवण मात्र से ही श्वेताम्बरी संघ मदलिन हो वहाँ से भाग गया । नब दिगम्बर संघ के लोग श्री कुन्दकुन्दाचार्य मुनि को प्रतिष्ठा तथा आदर पूर्वक अपने संघ में ले गये वहाँ बहुत से श्वेताम्बरियों ने दिगम्बरी धर्म स्वीकार किया बहुत से लोगों ने मताभिमान के गर्व से दिगम्बरी मत का निषेध किया और गुजरात देश में जाकर श्वेताम्बर मत की पुष्टि को । अस्तु इस प्रकार वताम्बर मत का महत्व खण्डन होने पर दिगम्बरी लोगों ने बहाँ एक जिम मंदिर को स्थापना कर उसका प्रतिष्ठा श्री कुन्दकुन्दाचार्य के कमलों से कराई । तदनन्तर सर्व लोक श्री कुन्दकुन्दाचार्य के सायक वहाँ कुन्दकुन्दाचार्य ने एक पट्ट को स्थापना की और वहां एक विद्वान शिष्य योजना कर स्वयं तत्व अनुचितन करते हुये समय व्यतीत करने लग । सके सब शिष्यों में उमस्यामों (जिन्होंने सार्थ मूत्र नामक दशाध्यायी ग्रंथ रचा है) मुख्य थे। उन्होंने अपनो प्रबल विद्या के गव से अपनी उन्नीस व का प्रायु में श्री कुन्द-कुन्दाचार्य से शास्त्रार्थ किया परन्तु पराजित हुये तब निरभिमान हो श्री कुन्द-कुन्दाचार्य का शिष्यत्व स्वोकार किया और पच्चीसवें वर्ष उसने दीक्षा ले मुनि हो गये । श्री कुन्द-कुन्दाचार्य ने अनुप्रक्षाओं का चितवन करते हुये सन्यास मरण पूर्वक शरीर तज स्वर्ग लोक प्राप्त किया। बीर संवत् ५८५ विक्रम संवत् १०१ और ईस्वी सन् ६३ में स्वर्ग लोक प्राप्त किया। इनके परलोक गमन के अननन्नर श्री उमास्वामी ही पट्टाधिकारी हुये। इति श्री कुन्दकुन्दाचार्य चरित्र गुजराती भाषानुवाद समाप्तम् ।। इस प्रकार जगत्पूज्य श्री सन्मतिनाथ महावीर स्वामी के निर्वाणान्तर होने वाले केवली, श्रुत केवली, अंगपूर्व के ज्ञाता ऋषि, महर्षि व जैन धर्म का भूमंडल पर अस्तित्व रखने में कारण भूत ऐसे धरसेन, कुन्द-कुन्दाचार्य व प्रकलंक देव का संक्षिप्त वर्णन किया । अब मागे इस दुःखम काल में होने वाले इक्कीस कल्की व इक्कीस उपक्रल्कियों का वर्णन हैं इस विकराल दुःखम काल में प्रत्येक हजार वर्ष की अवधि में इक्कीस कल्की और उनके प्रथम हजार वर्ष पहले अंतराल के समय में इक्कीस उपकको एवं बयालीस धर्मनाशक राजा उत्पन्न होते हैं। चौबीसवें तीर्थकर के निर्वाणांत से छह सौ पाँच वर्ष पीछे विक्रम शक (उपनाम शालि वाहन) राजा हुमा जिसका संवत्सर प्रवर्तमान है । पश्चात् तीन सौ तिराणवें वर्ष पौर सात मास ध्यतीत होने पर अनेक राजामों द्वारा सेवनीय जिनधर्म से बहिर्मुख उन्मार्गचारी चतुर्मुख नामक कल्की हुमा, जिसकी पायु ससर वर्ष प्रमाण थी । अहिंसामय सद्धर्म से परान्मुख मिथ्यात्वियों में शिरोमणि होकर चालीस
SR No.090292
Book TitleNamokar Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages427
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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