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________________ णमोकार पंथ श्रीमान्, और कितने ही सर्वसाधारण मनुष्यों ने इस संसार को प्रसार जानकर मोह बाल तोड़ इनके निकट दिगम्बरी दीक्षा ग्रहण की। उन सबकी संख्या सात सौ थी ये सब कुन्द कुन्दाचार्य के शिष्य कहलाये । बहुत-सी स्त्रियों ने प्रायिकानों के वनों की दीक्षा ली। कितनों ने अणुक्त ग्रहण किये। इस प्रकार से जिन धर्मोपदेश द्वारा उस नगरी में उन्होंने उत्तम प्रकार से धर्म प्रभावना प्रगट को । नित्य अनशन युक्त तप करके धारणा करने लगे जिससे चारों दिशाओं में प्रख्यात हो गये।। पश्चात श्रीकंदकंद स्वामी अपने शिष्यों को साथ लेकर धर्मोपदेश और जैनधर्म के प्रचार के लिए विहार करने लगे जिससे वे चारों दिशाओं में प्रख्यात हो गये। उन्होंने बहुधा भारतवर्ष के बहुत से प्रदेशों में विहार करके धर्मोपदेश दिया और बहुतों को प्रात्महित साधक पवित्र मार्ग पर लगाया और दुर्गति के दुःखों का नाश करने के लिये पवित्र जैन धर्म का प्रचार सब पोर किया। इस प्रकार धर्म प्रभावना करते हुये कितने ही स्थानों पर पट्टस्थापना किये जिससे उन प्रान्तों में सतत धर्मोपदेश मिलने मे प्रखलिता नीति से है । सा में चार संघ हैं (१) मूलसंघ, (२) सिहसंघ (३) नंदि संघ और (४) काष्टा संघ । इनमें से काष्टा संघ का तो कुंदकुंदाचार्य से पूर्ववर्ती होने वाले ऋषभसेनाचार्य ने स्थापन किया था और शेष थी कंदकून्द प्राचार्य ने स्थापित किये। इस प्रकार श्री कुन्दकुन्दाचार्य अनेक क्षेत्रों में विहार करते हुये उज्जैनी नगरी में पाये । वहाँ उन दिनों श्वेताम्बर मत का बहुत प्रचार था। जब श्री कुन्दकुन्दाचार्य जैसे जिनसिंह केशरी ने चौतरफा दिगम्बरो मत का ईका बजाया तब बहुत से लोगों के मन में ऐसी भ्रांति उत्पन्न हुई कि दिगम्बर और श्वेताम्बर मत एक हैं परन्तु श्वेताम्बर बीजरूप होने से पूर्व है और श्वेताम्बर मत के बाद दिगम्बर मत की उत्पत्ति हुई है। इस प्रकार परस्पर लोगों में असन्तोषजनक चर्चा होने से उसके निर्णय के लिये श्री कुन्दकुंदाचार्य के निकट पाये और सत्य धर्म की स्थापना तथा मिथ्याधर्म के खण्डन करने के लिये प्रार्थना की। तदनन्तर उभय धर्मावलम्बी श्री नेमनाथ भगवान के निर्वाण क्षेत्र गिरनार पर्वत पर वाद-विवाद होने का निश्चय कर दिगम्वरी श्री कुन्दकुन्दाचार्य के नेतृत्व में और श्वेताम्बरी जिनचन्द्राचार्य के नेतृत्व में पर्वत पर पहुंचे और पृथक्-पृथक स्थानों में निवास कर अपने-अपने धर्म का महत्व प्रगट करने लगे। वाद-विवाद का दिवस निश्चित होने पर शास्त्रार्थ प्रारम्भ हुप्रा । श्वेताम् परियों का कयन था कि वस्त्र बिना कदाचित् भी जीव की मुक्ति नहीं होती और दिसम्बरियों का पक्ष था कि जोव की उत्पत्ति ही नग्नावस्था में होती है और मरण समय में भी जीव नग्नावस्था में जगत का परित्याग करता है इसीलिए दिगम्बर अवस्था ही जीव को कार्यकारी होने से मान्य रूप है । इस प्रकार बहुत काल पर्यन्त बाद-विवाद रहा परन्तु परस्पर एक-दूसरे के पक्ष को कोई भी स्वीकार नहीं करता था। दिगम्बर मत के प्रधानाचार्य श्री कुन्दकुन्दाचार्य की जैसे अनेक सुविधायें सहाई थी उसी प्रकार श्वेताम्बर संघ के अधिष्ठाता जिनचन्द्र तथा महिचन्द्र की अनेक कुविधायें सहाई थी। विद्या के प्रभाव से परस्पर एक-दूसरे के गहन प्रश्नों का तत्क्षण निवारण कर देने से एकदम हार-जीत का निर्णय होना असम्भव-सा हो गया तब दोनों पक्ष के लोग मन में खेद खिन्न हो गये। तदनन्तर एक दिवस श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने मन में ऐसा दृढ़ निश्चय किया कि आज मैं प्रतिपक्षी को यथार्थ निश्चय पर लाये बिना सभा से बाहर नहीं जाऊंगा' ऐसी प्रतिज्ञा करके वे सभा में पाये । उनके माते ही श्वेताम्बरी लोगों ने उनका उपहास किया। प्राशय यह है वि श्वेताम्बरी साधुओं ने एक छोटा सा मत्स्य कमंडल में रखकर मुख बन्द करके श्री कुन्द कुन्दाचार्य से पूछा-'इस जलपात्र में क्या है ?' तब तत्काल उत्तर दिया
SR No.090292
Book TitleNamokar Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages427
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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