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________________ णमोकार मंग कायवाले मनुष्यों में इनका पता लगना कठिन है-ऐसा विचार करते हुए उन्हें एक युक्ति सूझी और उस में वे कृतकृत्य भी हुए, उन्होंने एकदम कुन्दकुन्द मुनिराज को ले जाकर श्री सोमन्धर स्वामी के निकट म ख्यपीट पर जा स्थित किया। पश्चात् कुन्द-कुन्द मुनिराज श्री सीमन्धर स्वामी को नमस्कार कर तीन प्रदक्षिणा करके उबक अग्रभाग में बैठ गये। कुछ समय में अनन्तर विदेह के सार्वभौम राजा पद्मरथ बहाँ पाए और श्री सीमधर स्वामी को नमस्कार कर वहाँ महापीठ पर बैठे वामन मूर्ति मनिराज को अवलोकन कर उन्हें कोमल कर कमलों द्वारा धीरे से उठकर हथेली पर बैठाकर श्री सीमन्धर स्वामी से सविनय बोले- भगवान ! ये अपर्व दृष्टि वामन मूर्ति कोन है, यह आप कृपाकर कहिए ।" तब शाश्वत तीर्थंकर श्री सीमन्धर स्वामी ने अपनी दिव्य ध्वनि द्वारा उत्तर दिया-"जिन मुनि के विषय में मैंने तुमसे कुल वृत्तान्त कहा था तथा जिसको "सद्धम्मद्धिरस्तु" ऐसा आशीर्वाद दिया था ये वो ही भरत क्षेत्र के वर्तमानकाल के धर्माध्यक्ष कुन्दकुन्द मुनि राज है। इ के भ्राता दो देवों ने यहांलाकार बंठाया है।" पश्चात् कुन्दकुन्द मुनिराज स्वतः उठे और ओ-जो हृदयगत शंकायें भी उन सबको कह सुनाया । तीर्थकर भगवान ने उन सब शंकानों का ठीक-ठीक समाधान कर दिया । मुनकर उनका सब सन्देह दूर हो गया। कुन्दकुन्द मुनिराज से पाहार लेने के लिए निवेदन किया। सुन कर मनिराज ने उत्तर में कहा-"राजन् ! हमारा क्षेत्र पृथक है तब हम पर क्षेत्र में आहार किस प्रकार ले सकते हैं ? ये मुनिक्रिया के अनुचित है।" ये उत्तर सुनकर महाराज पधरथ ने उनकी स्तुति करते हुए कहा-खडगधारा की अपेक्षा मुनि क्रिया तीक्ष्ण है और उसे पाप हार्दिक दृढ़ता से पालन करते हैं प्रतएव प्राप कोटिशः धन्यवाद के पात्र हैं।" वहाँ पर कुन्दकुन्द मुनि राज ने चार युग और चार अनुयोगों का सर्व वृतान्त जाना । उसके बाद सर्व शंका रहित हो विशेष ज्ञान प्राप्त कर कृन्दकुन्द मुनि पूर्ववत् श्री सोमंधर स्वामी को नमस्कार कर सबसे सहमत हो भरत क्षेत्र में पाने के लिए उन दोनों देवों के साथ विमानारूद हए। गमन करते समय उन मुनि ने उन्हें एक धर्म सिद्धान्त पुस्तक दी। उसे लेकर कुन्दकुन्द मुनि और वे दोनों देव विमानारूढ़ हो भरत क्षेत्र की ओर पाने लगे। प्राते हुये मार्ग में मेरू पर्वत पर उतरे । वहाँ प्रकत्रिम चैत्यालय जिन भगवान के दर्शन कर पश्चात विजयार्ध पर्वत पर दर्शनार्थ गये। वहां दर्शन कर कैलाश गिरि सम्मेद शिखर आदि तीर्थ क्षेत्रों के दर्शन करते चले आते थे कि कहीं मार्ग में मुनि द्वारा प्राप्त वह धर्म सिद्धान्त पुस्तक गिर पड़ी। मालूम होने पर बहुत कुछ अन्वेषण किया पर कहीं पता नहीं लगा। अस्तु वे दोनों देव और मुनि तीनों तत्काल विमानारूढ़ हो भरत क्षेत्र में पाये और वारापुरी के वाह्योद्यान में कुन्दकुन्द मुनिराज को ला विराजमान किया और वहाँ पर उन देवों ने कुन्दकुन्द मुनिराज के अपर पुष्प वर्षा करके उनकी पूजा की । पश्चात् मार्ग प्रयाण किया। विदेह क्षेत्र में जाते हुए मयूर मिच्छिका स्त्रो जाने पर गृद्ध पक्षो के पंखों की पिच्छि बनाने से गृखपिच्छाचार्य और विदेह में जाने से ये एलाचार्य कहलाये ! विदेह क्षेत्र में से श्री कुन्द-कुन्द स्वामी के पनन्तर उनके दर्शनार्थ वारापुरी के राजा कुमुचन्द्र उनके माता-पिता, कुन्दलता और कुन्दश्रेष्ठी और बहुत से श्रावक-श्राविका प्रादि हजारों मनुष्य आये । पूछने पर उन्होंने विदेह गमन का वृतान्त सुनकर पश्चात् धर्मोपदेश दिया जिसे सुनकर सब सन्तुष्ट हुए । तत्पश्चात् उन्होंने नगर के बाह्य प्रदेश में रहकर जैन धर्म और मुनि धर्म का विस्तृत स्वरूप, श्रावक तथा अन्य सर्वसाधारण को समझाया। कितने की
SR No.090292
Book TitleNamokar Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages427
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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