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________________ णमोकार ग्रंथ ॐ ह्रीं अह शासिताय नमः ॥८८०॥ श्राप रक्षक होने से शासिता हैं ॥८८०।। ॐ ह्रीं अहँ स्वभुषे नमः ॥८८१।। अपने आप उत्पन्न होने से आप स्वयंभू हैं ।।८८१॥ ॐ ह्रीं महं शान्तनिष्ठाय नमः 11८८२| काम, क्रोध, मादि को नष्ट करने से प्रथवा शान्त होने से प्राप शान्तनिष्ठ हैं ।।। ॐ ह्रीं अहं मुनिज्येष्ठाय नमः ।।८८३।। मुनियों में श्रेष्ठ होने से आप मुनि ज्येष्ठ हैं ॥८८३|| ॐ ह्रीं महं शिवतातये नमः ॥८८४॥ सुख को परम्परा होने से आप शिवतात है ।।४।। ॐ ह्रीं महं शिवप्रदाय नमः ।।८८५॥ कल्याण के दाता होने से पाप शिवप्रद है ।।८८५।। ॐ ह्रीं ग्रह शान्तिदाय नमः ॥८८६।। शान्तिदायक होने से आप शान्तिद है ॥६६॥ ही प्रहशान्सिकताय नमः ||८८७समस्त उपद्रवों को शान्त करने से प्राप शान्तिकृत हैं ||८८७॥ ॐ ह्रीं अई शान्तये नमः ।।८८८।। कर्मों का क्षय करने से आप शान्ति हैं ।।८८८।। ॐ ह्रीं ग्रह कान्तिमते नमः ॥८८६|| कान्तियुक्त होने से प्राप कान्तिमान् हैं ।।८८६|| ॐ ह्रीं पहं कामित्प्रदाय नमः ॥८६०|| मनवांछित फलों को देने वाले होने से ग्राप कामित्प्रभ हैं ॥८६॥ ॐ ह्रीं मह श्रेयोनिधये नमः 11८६१॥ कल्याण के समुद्र होने से पाप श्रेयोनिधि हैं ॥१॥ ॐ ह्रीं अह अधिष्ठानाय नमः ।।८६सा धर्म के मूल कारण और आधार होने से आप अधिष्ठान हैं ||६२॥ ॐ ह्रीं ग्रह अप्रतिष्ठाय नमः ।।८६३।। मपमे माप ही ईश्वर होने से पाप मप्रतिष्ठ हैं ।।८६॥ ॐ ह्रीं अहं प्रतिष्ठिाय नमः ॥८६४॥ सब जगह प्रतिष्ठित होने से आप प्रतिष्ठित हैं ।।८६४।। ॐ ह्रीं ग्रह सुस्थिताय नमः ||८६५।। मतिशय स्थिर होने से.पाप सुस्थित हैं IE६५|| ॐ ह्रीं अहं स्थावराय नमः ।।१६।। विहार रहित होने आप स्थावर हैं ||१|| ॐहीं अहं स्थाणशे नमः ||१७|| निश्चल होने से पाप स्थाण हैं ||१७|| ॐ ह्रीं ग्रह पृथीयसे नमः ।।८६८॥ विस्तृत होने से आप पृथीयान हैं ।1८६८॥ ॐ ह्रीं अहं प्रथिताय नमः ८६६।। अतिशय प्रसिद्ध होने से प्राप प्रथित हैं ॥८|| ॐ ह्रीं प्रई पृथुवे नमः ।।६०० बहुत बड़े होने से पाप पृथु कहलाते हैं ॥१०॥ ॐ ह्रीं अहं दिग्वाससे नमः।।६०१३। दिशारूप वस्त्र धारण करने से प्राप दिग्वासा हैं ।।६०१॥ ॐ ह्रीं पहं वातरशनाय नमः ||६०२।। वायुरूपी करधनी को धारण करने वाले होने से माप बातरशन है ।१६०२॥ ॐ ह्रौं प्रहं निर्ग्रन्थेराय नमः ॥१०३।। निनन्य मुनियों में भी श्रेष्ठ होने से पाप निग्रंन्येश हैं ॥६०३॥ ॐ ह्रीं मह निरम्बराय नमः ॥९०४] वस्त्र रहित होने से भाप निरम्बर हैं ॥९०४|| ॐहीं मह निष्कचनाय नमः ॥१०॥ परिग्रह रहित होमे से पाप निष्कंधमा०५॥ ॐ ह्रीं वह निराशंसाय नमः ॥६० ६।। इच्छा अथवा प्राशा रहित होने से पाप निराशंस है ।।६०६|| ॐ ह्रीं पह भानचक्षुषे नमः ॥९०७॥ ज्ञानरूपी नेत्रों को धारण करने से प्राप शानचक्षु कहलाते हैं ॥१०॥ ॐ हीं पहं प्रमोमुहाय नमः ।..! अत्यन्त निर्मोह होने से पाप प्रमोमुह हैं ।।१०।।
SR No.090292
Book TitleNamokar Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages427
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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