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________________ णमोकार ग्रंथ ॐ ह्रीं मह मचिन्त्याय नमः ॥५६३।। आप किसी के चितवन में नहीं पाते इसलिए अचिन्त्य हैं ।।५६३॥ ___ॐ ह्रीं महं श्रुतात्मने नमः ।।५६४।। समस्त शास्त्रों के रहस्यरूप होने से अथवा भावश्रुतज्ञानरूप होने से प्राप श्रुतात्मा हैं ॥५६४॥ ॐ ह्रीं अहं विष्ठरवाय नमः ॥५६५॥ तीनों लोकों के समस्त पदार्थों के जानने से आप विष्टरश्रवा है ॥५६॥ ॐ ह्रीं महं दातात्मने नमः ॥५६६।। जितेन्द्रिय होने से अथवा सबको शिक्षा देने से प्राप दातात्मा हैं ।।५६६॥ ॐ ह्रीं अह दमतीर्थेशाय नमः ॥५६७|| प्राप इंद्रियों को दमन करने रूप तीर्थ के स्वामी होने से अथवा योग शास्त्र के स्वामी होने से बनतीश कहलाते हैं ।। ५६७।। ॐ ह्रीं ग्रह योगात्मने नमः ।।५६८॥ पाप योगस्वरूप होने से योगात्मा हैं ||५६८।। ह्रीं मह ज्ञानसर्वगाय नमः ॥५६६।। ज्ञान के द्वारा सब जगह होने से प्राप ज्ञानसर्वग कहलाते हैं ॥५६६।। ॐ ह्रीं अहं प्रधानाय नमः ॥५७०॥ आप एकाग्नता से आत्मा का ध्यान करने से प्रधान है ।।५७०।। ___ हीं ग्रह मात्मने नमः|५७१|| आप ज्ञानस्वरूप होने से ज्ञानात्मा हैं ||५७१। ॐ ह्रीं ग्रह प्रकृतये नमः ॥५७२॥ आप समवशरण रूप लक्ष्मी उत्कृष्ट है अथवा धर्मोपदेश के रूप कार्य प्रशंसनीय है अथवा सबके कल्याणकारी हैं इसलिए प्रकृति हैं ॥५७२।। ॐ ह्रीं मह परमाय नमः ॥५७३।। उत्कृष्ट लक्ष्मी को धारण करने से आप परम है ।।५७३।। ॐ ह्रीं अहं परमोदयाय नमः ।।५७४॥ परम उदय को धारण करने से अथवा मापका उदय कल्याणकारी होने से पाप परमोदय है ।।५७४।। ॐ ह्रीं अर्ह प्रक्षीणबंधाय नमः ।।५७५॥ कर्मबन्ध सब नष्ट होने से आप प्रक्षीणबंध हैं ॥५७५।। ॐ ह्रीं अहं कामारये नमः ॥५७६॥ कामदेव के परम शत्र होने से आप कामारि ॐ ह्रीं अहं क्षेमकृते नमः ॥५७७|| सबका कल्याण करने से आप क्षमकृत हैं ।।५७७।। ॐ ह्रीं महामशासनाय नमः ।।५७८।। प्रापका मत वा उपदेश सबको कल्याणकारी होने से पाप-क्षेमशासन कहलाते हैं ।।५७।। ॐ ह्रीं पहं प्रणवाय नमः ॥५७६।। भोंकार स्वरूप होने से आप प्रणव हैं ।।५७६।। ॐ ह्रीं मह प्रणयाय नमः ।।५८०|| सबके मित्र होने से आप प्रणय हैं ।। ५८०॥ ॐ ह्रीं महं प्राणाय नमः ॥५८१॥ जगत् को प्रिय होने से अथवा सबको शरण देने से आप प्राण हैं॥५८१॥ ॐ ह्रीं महं प्राणदाय नमः ।।५८२॥ अतिशय दयालु होने से आप प्राणों को देने वाले हैं इसलिए पाप प्राणद हैं ॥५८२॥ ॐ ह्रीं अहं प्राणेश्वराय नमः ॥५८३॥ आप प्रणाम करते हुए इंद्रादिकों के स्वामी हैं अथवा प्रणाम करते हुए भव्य जीवों का पालन-पोषण करने वाले हैं इसलिए आप प्राणेश्वर है ।।५८३।। हैं ॥५७६।।
SR No.090292
Book TitleNamokar Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages427
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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