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________________ णमोकार ग्रंप ॐ ह्रीं अर्ह प्रमाणाय नमः ।।५८४॥ प्रमाण नय के वक्ता होने से अथवा ज्ञानस्वरूप होने से या ज्ञान का साधन होने अथवा लोक प्रमाण एवं देह प्रमाण होने से आप प्रमाण है ।।५८४१ ॐ ह्रीं अहं प्रणधिये नमः ।।५८५।। योगी लोग आपको बड़ी गुप्त रीति से चितवन करते है अथवा आप सबके मर्मी वा जानने वाले हैं इसलिए प्रापको प्रणधि कहते हैं ॥५८५११ ॐ हीं अहं दक्षाय नमः ॥५८६।।मोक्ष प्राप्त करने में चतुर होने से आप दक्ष हैं ।।५८६॥ ॐ ह्रीं अहं दक्षिणाय नमः ।।५८७।। सरल स्वभावी होने से आप दक्षिण हैं 11५८७१। ॐ ह्रीं मह अध्वर्यवे नमः ॥५२॥ केवलज्ञान रूप यज्ञ को करने से अथवा पाप रूप कर्मों का हवन करने से आप अध्वर्यु हैं ॥५ ॥ ॐ ह्रीं अहं अध्वराय नमः ॥५८६।। सन्मार्ग की प्रवृत्ति करने से पाप अध्वर है ॥५८६।। ॐ ह्रीं अह मानन्दाय नमः ।।५६०।। सदा संतुष्ट रहने से पाप मानन्द हैं 11५६०।। ॐ ह्रीं प्रहं नन्दनाय नमः ||५६१।। सबको आनन्द देने से माप नन्दन हैं ॥५६१॥ ॐ ह्रीं प्रह नंदाय नमः ॥५६२।। सदा बढ़ते रहने से पाप नन्द हैं ॥५६२॥ ॐ ह्रीं अहं वंद्याय नमः ॥५६३॥ सभी के द्वारा वंदना और स्तुति करने से आप वैद्य हैं ||३|| ॐ ह्रीं अहं अनिंद्याय नमः ॥५६४॥ पाप अठारह प्रकार के दोषों से रहित होने के कारण सब प्रकार की निन्दा के अयोग्य हैं 11५६४॥ ॐ ह्रीं अहं अभिनन्दनाय नम: ५५ नया मानन्दायक होते मे मदद माप के समयशरण के चारों बन भयरहित होने से आप अभिनन्दन हैं ||५६५१] ॐ ह्रीं अर्ह कामहाय नमः ।।५६६।। कामदेव को नाश करने से आप कामहा हैं ॥५६६।। ॐ ह्रीं यह कामदाय नमः ॥५६७॥ भक्त, भव्य जीवों की इच्छा पूर्ण कर देने से आप कामद है ॥५६७|| ॐ ह्रीं महं काम्याय नमः ।।५६८।। अतिशय मनोहर होने से अथवा प्रापकी प्राप्ति की इच्छा सबको होने से आप काम्य हैं १५६८। ॐ ह्रीं अहं कामधेनवे नमः ||५६६|| इच्छित पदार्थों को देने से आप कामधेनु हैं ।। ५.१६।। ॐ ह्रीं अहं अरिजयाय नमः ॥६००1। रागादि समस्त शत्रुओं को जीतने से माप अरिजय कहलाते हैं ॥६००॥ ॐ ह्रीं अहं असंस्कृतसुसंस्काराय नमः ॥६०१॥ बिना किसी संस्कार के स्वभाव से ही सुन्दर होने से आप प्रसंस्कृत सुसंस्कार हैं ॥६०१।। ॐ ह्रीं अह अप्राकृते नमः ।। ६०२।। आपका स्वरूप प्रकृति से उत्पन्न नहीं हुमा है। वह असाधारण अथवा अद्वितीय है इसलिये आप अप्राकृत हैं ।।६०२।। ॐ ह्रीं पह वैकृतांतकृते नमः ॥६०३।। रोग अथवा विकारों को नाश करने से आप वैकृतांतकृत हैं ॥६०३।। ॐ ह्रीं अहं मंतकृते नमः ॥६०४।। जन्म, मरा संसार को नाश करने से अथवा मोक्ष को समीप करने से पाप अंतकृत हैं ॥६०४।। ॐ ह्रीं प्रहं कांतगवे नमः ।।६०५॥ सुन्दर वाणी अथवा सुन्दर प्रभा होने से माप कोतगु है॥६०५॥ - -
SR No.090292
Book TitleNamokar Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages427
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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